अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
अ॒पामह॑ दि॒व्याना॑म॒पां स्रो॑त॒स्यानाम्। अ॒पामह॑ प्र॒णेज॒नेऽश्वा॑ भवथ वा॒जिनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम्। अह॑। दि॒व्या᳡नाम्।अ॒पाम्। स्रो॒त॒स्या᳡नाम्। अ॒पाम्। अह॑। प्र॒ऽनेज॑ने। अश्वाः॑। भ॒व॒थ॒। वा॒जिनः॑ ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामह दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम्। अपामह प्रणेजनेऽश्वा भवथ वाजिनः ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम्। अह। दिव्यानाम्।अपाम्। स्रोतस्यानाम्। अपाम्। अह। प्रऽनेजने। अश्वाः। भवथ। वाजिनः ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
विषय - जलों के द्वारा प्रणेजन [रोगशुद्धि व पोषण]
पदार्थ -
१. (अह) = निश्चय से (दिव्यानाम् अपाम्) = अन्तरिक्ष से वृष्ट होनेवाले जलों के, (स्त्रोतस्यानाम्) = स्रोतों से प्राप्त होनेवाले जलों के, (अह) = और (अपाम्) = अन्य जलों के प्रणेजने शोधन व पोषण के होने पर, अर्थात् इन जलों के द्वारा रोग-निवृत्ति व पुष्टि प्राप्त होने पर तुम (वाजिनः) = शक्तिशाली (अश्वा:) = सदा कर्मों में व्याप्त होनेवाले आलस्यशून्य मनुष्य (भवथ) = बनो।
भावार्थ - जलों द्वारा शरीर-शुद्धि व पोषण होने पर हम शक्तिशाली कर्मों में व्याप्त आलस्यशून्य जीवनवाले बनते हैं।
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