अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
इ॒मं ब॑ध्नामि ते म॒णिं दी॑र्घायु॒त्वाय॒ तेज॑से। द॒र्भं स॑पत्न॒दम्भ॑नं द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम्। ब॒ध्ना॒मि॒। ते॒। म॒णिम्। दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑। तेज॑से। द॒र्भम्। स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम्। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं बध्नामि ते मणिं दीर्घायुत्वाय तेजसे। दर्भं सपत्नदम्भनं द्विषतस्तपनं हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। बध्नामि। ते। मणिम्। दीर्घायुऽत्वाय। तेजसे। दर्भम्। सपत्नऽदम्भनम्। द्विषतः। तपनम्। हृदः ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
विषय - दीर्घायुत्वाय, तेजसे
पदार्थ -
१. 'आपो दर्भाः श० २.२.३.११' इस वाक्य के अनुसार 'आप:' ही 'दर्भ:' कहलाते हैं। 'आप:' शरीरस्थ रेत:कणों का नाम है, अत: रेत:कण ही 'दर्भ' कहे गये हैं। रेत: कण 'मणि' व 'रत्न' हैं-शरीर में रमणीयतम वस्तु हैं, अत: 'दर्भमणि' शब्द का प्रयोग इन रेत:कणों के लिए हुआ है। (इमम्) = इस (मणिम्) = मणि को (ते बध्नामि) = तेरे लिए बाँधता हूँ। शरीर में इसे सुबद्ध करता है, ताकि (दीर्घायुत्वाय) = तुझे दीर्घजीवन प्राप्त हो तथा (तेजसे) = तू तेजस्वी बने। २. इस (दर्भम्) = दर्भ को मैं तेरे लिए बाँधता हूँ, क्योंकि [दुभ to fear, to be afraid of] इससे सब रोग भयभीत होते हैं। (सपत्नदम्भनम्) = यह तो रोगरूप शत्रुओं को हिंसित करनेवाला है। (द्विषतः हृदः तपनम्) = ये दर्भ हमसे प्रीति न करनेवाले शत्रु के हृदय को संतप्त करनेवाले हैं। शरीर में दर्भ का बन्धन होने पर शरीर में रोगरूप शत्रुओं का वास नहीं हो पाता।
भावार्थ - शरीर में वीर्यकों के रूप में रहनेवाले 'आप:' ही 'दर्भ' हैं। इनका शरीर में बंधन होने पर वहाँ रोगरूप शत्रु नहीं आ सकते। यह रोगों से अनाक्रान्त व्यक्ति दीर्घजीवी व तेजस्वी बनता है।
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