अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
द्वि॑ष॒तस्ता॒पय॑न्हृ॒दः शत्रू॑णां ता॒पय॒न्मनः॑। दु॒र्हार्दः॒ सर्वां॒स्त्वं द॑र्भ घ॒र्म इ॑वा॒भीन्त्सं॑ता॒पय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठद्वि॒ष॒तः। ता॒पय॑न्। हृ॒दः। शत्रू॑णाम्। ता॒पय॑न्। मनः॑। दुः॒ऽहार्दः॑। सर्वा॑न्। त्वम्। द॒र्भ॒। घ॒र्मःऽइ॑व। अ॒भीन्। स॒म्ऽता॒पय॑न् ॥२८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विषतस्तापयन्हृदः शत्रूणां तापयन्मनः। दुर्हार्दः सर्वांस्त्वं दर्भ घर्म इवाभीन्त्संतापयन् ॥
स्वर रहित पद पाठद्विषतः। तापयन्। हृदः। शत्रूणाम्। तापयन्। मनः। दुःऽहार्दः। सर्वान्। त्वम्। दर्भ। घर्मःऽइव। अभीन्। सम्ऽतापयन् ॥२८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
विषय - द्विषन्-शत्रु-दुर्हादः
पदार्थ -
१. (द्विषत:) = हमसे प्रीति न करनेवाले विरोधियों के (हृदः) = हृदयों को (तापयन्) = सन्तप्त करता हुआ यह 'दर्भ' है। (शत्रूणाम्) = हमारा शातन करनेवाले शत्रुओं के (मनः) = मन को (तापयन्) = तपाता हुआ यह दर्भ है। २. हे (दर्भ) = शत्रुओं को भयभीत करनेवाले दर्भमणे! (त्वम्) = तू (सर्वान्) = सब (अभीन्) = न डरनेवाले–अति प्रबल (दुर्हार्दिः) = दुष्ट हृदयवालों को (धर्मः इव) = आदित्य की भांति (तापयन्) = संतप्त करता हुआ हो।
भावार्थ - दर्भमणि के धारण से-वीर्य-रक्षण से द्वेषभाव दूर हो जाते हैं, 'काम, क्रोध, लोभ' आदि शत्रु विनष्ट हो जाते हैं, हृदय से सब दुर्भाव दूर हो जाते हैं।
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