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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त

    भि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे भि॒न्द्धि मे॑ पृतनाय॒तः। भि॒न्द्धि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ भि॒न्द्धि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। भि॒न्द्धि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। भि॒न्द्धि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। भि॒न्द्धि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भिन्द्धि दर्भ सपत्नान्मे भिन्द्धि मे पृतनायतः। भिन्द्धि मे सर्वान्दुर्हार्दो भिन्द्धि मे द्विषतो मणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। भिन्द्धि। मे। पृतनाऽयतः। भिन्द्धि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। भिन्द्धि। मे। द्विषतः। मणे ॥२८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १.हे (दर्भ) = वीर्यमणे! (मे) = मेरे (सपत्नान्) = शत्रुभूत रोगों को (भिन्धि) = विदीर्ण कर डाल। ये (पूतनायत:) = मुझपर सेना से चढ़ाई करनेवाले-नाना प्रकार के उपद्रवों के साथ आक्रमण करनेवाले इन रोगों को (भिन्धि) = नष्ट कर। २. मेरे प्रति (सर्वान्) = सब (दुर्हार्दिः) = दुष्ट हृदयवाले मेरा अशुभ चाहनेवाले शत्रुओं को (भिन्धि) = विदीर्ण कर। हे (मणे) = वीर्य! तू (मे द्विषत:) = मेरे साथ अप्रीतिवाले इन रोगरूप शत्रुओं को (भिन्धि) = विदीर्ण कर।

    भावार्थ - रोग हमारे सपत्न है-हमारे शरीर पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। ये रोग विविध उपद्रवोंरूप सैन्य के साथ हमपर आक्रमण करते हैं। ये हमारे प्रति दुष्टभाववाले हैं-ये कभी हमारा भला नहीं करते। इनकी हमारे साथ कोई प्रीति नहीं। वीर्य शरीर में सुरक्षित होने पर इनका विदारण कर देता है।

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