अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
भि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑नां॒ हृद॑यं द्विष॒तां म॑णे। उ॒द्यन्त्वच॑मिव॒ भूम्याः॒ शिर॑ ए॒षां वि पा॑तय ॥
स्वर सहित पद पाठभि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑नाम्। हृद॑यम्। द्वि॒ष॒ताम्। म॒णे॒। उ॒त्ऽयन्। त्वच॑म्ऽइव। भूम्याः॑। शिरः॑। ए॒षाम्। वि। पा॒त॒य॒ ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्द्धि दर्भ सपत्नानां हृदयं द्विषतां मणे। उद्यन्त्वचमिव भूम्याः शिर एषां वि पातय ॥
स्वर रहित पद पाठभिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नानाम्। हृदयम्। द्विषताम्। मणे। उत्ऽयन्। त्वचम्ऽइव। भूम्याः। शिरः। एषाम्। वि। पातय ॥२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
विषय - शत्रु-शिरो-विपातन
पदार्थ -
१. हे (दर्भ) = दर्भमणे-रोगरूप शत्रुओं की हिंसक बीर्यमणे! तू (सपत्नानाम्) = रोगरूप शत्रुओं के (हृदयम्) = हृदय को (भिन्धि) = विदीर्ण कर दे। रोगों के प्राबल्य को समाप्त कर दे। २. (उद्यन्) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाली होती हुई तू (भूम्या: त्वचम् इव) = जैसे कोई कुदाल आदि से भूमि की उपरली त्वचा को खोद डालता है, उसी प्रकार तू (एषां द्विषताम्) = इन, हमारे साथ प्रीति न करनेवाले रोगरूष शत्रुओं के (शिरः विपातय) = सिर को काटकर गिरा दे।
भावार्थ - शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर रोगरूप शत्रुओं का सिर कट जाता है, अर्थात् रोग विनष्ट हो जाते हैं।
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