अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - कुष्ठः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
ऐतु॑ दे॒वस्त्रा॑यमाणः॒ कुष्ठो॑ हि॒मव॑त॒स्परि॑। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठआ। ए॒तु॒। दे॒वः। त्राय॑माणः। कुष्ठः॑। हि॒मऽव॑तः। परि॑। त॒क्मान॑म्। सर्व॑म्। ना॒श॒य॒। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡ ॥ ३९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐतु देवस्त्रायमाणः कुष्ठो हिमवतस्परि। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। एतु। देवः। त्रायमाणः। कुष्ठः। हिमऽवतः। परि। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥ ३९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
विषय - कुष्ठ
पदार्थ -
१. यह (देवः) = रोगों को जीतने की कामनावाला (त्रायमाण:) = हमारा रक्षण करता हुआ (कुष्ठः) = [कुष्णाति रोगान्] रोग को (वाहि) = निकाल फेंकनेवाला 'कुष्ठ' (हिमवतःपरि) = हिम-[बर्फ] वाले प्रदेश से (आ एतु) = हमें प्राप्त हो। २. हे कुष्ठ! तु (तक्मानम्) = जीवन को कष्टमय बनानेवाले (सर्वम्) = सब रोगों को, (च) = और (सर्वा:) = सब (यातुधान्य:) = पीड़ा का आधान करनेवाली बीमारियों को नाशय नष्ट कर दे।
भावार्थ - हिमवाले प्रदेशों से प्राप्त होनेवाला यह कुष्ठ सब ज्वरों व पीड़ाओं को दूर करनेवाला है। संस्कृत में इसके नाम ही 'व्याधिः पारिभाव्यम्' है [विगतः आधि: अनेन, परिभावे साधुः] रोग इससे दूर होता है। यह रोगों को पराजित करने में उत्तम है।
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