अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 39/ मन्त्र 8
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - कुष्ठः
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाष्टिः
सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
यत्र॒ नाव॑प्र॒भ्रंश॑नं॒ यत्र॑ हि॒मव॑तः॒ शिरः॑। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कु॑ष्ठो वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। न। अ॒व॒ऽप्र॒भ्रंश॑नम्। यत्र॑। हि॒मऽव॑तः। शिरः॑। तत्र॑। अ॒मृत॑स्य। चक्ष॑णम्। ततः॑। कुष्ठः॑। अ॒जा॒य॒त॒। सः। कुष्ठः॑। वि॒श्वऽभे॑षजः। सा॒कम्। सोमे॑न। ति॒ष्ठ॒ति॒। त॒क्मान॑म्। सर्व॑म्। ना॒श॒य॒। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡ ॥३९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र नावप्रभ्रंशनं यत्र हिमवतः शिरः। तत्रामृतस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत। स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। न। अवऽप्रभ्रंशनम्। यत्र। हिमऽवतः। शिरः। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 8
विषय - पर्वत शिखरों पर
पदार्थ -
१. (यत्र) = जहाँ (न अवप्रभंशनम्) = नहीं होता नीचे गिरना, अर्थात् जहाँ पर्वतों की बहुत ऊँचाई पर बर्फ पिघलती नहीं, जमी रहती है, (यत्र) = जहाँ (हिमवत:) = इस हिमाच्छादित पर्वत का शिखर है (तत्र) = वहाँ खूब ऊँचाई पर (अमृतस्य) = किरणों में अमृत को लिए हुए सूर्य का जब (चक्षणम्) = प्रकाश होता है, अर्थात् जब उस हिमाच्छादित प्रदेश पर सूर्यकिरणें पड़ती हैं, (तत:) = तब यह (कुष्ठः) = कुष्ठ नामक औषधि (अजायत) -= उत्पन्न होती है। (सः कुष्ठः) = वह कुष्ठ सब रोगों का औषध है|
भावार्थ - कुष्ठ नामक औषध हिमाच्छादित पर्वतों के अत्युच्च शिखरों पर सूर्य प्रकाश के चमकने पर उत्पन्न होती है। यह सर्वोषध है।
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