अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
घृ॒तस्य॑ जू॒तिः सम॑ना सदे॑वा संवत्स॒रं ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्ती। श्रोत्रं॒ चक्षुः॑ प्रा॒णोऽच्छि॑न्नो नो अ॒स्त्वच्छि॑न्ना व॒यमायु॑षो॒ वर्च॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तस्य॑। जू॒तिः। सम॑ना। सऽदे॑वा। स॒म्ऽव॒त्स॒रम्। ह॒विषा॑। व॒र्धय॑न्ती। श्रोत्र॑म्। चक्षुः॑। प्रा॒णः। अच्छि॑न्नः। न॒। अ॒स्तु॒। अच्छि॑न्नाः। व॒यम्। आयु॑षः। वर्च॑सः ॥५८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतस्य जूतिः समना सदेवा संवत्सरं हविषा वर्धयन्ती। श्रोत्रं चक्षुः प्राणोऽच्छिन्नो नो अस्त्वच्छिन्ना वयमायुषो वर्चसः ॥
स्वर रहित पद पाठघृतस्य। जूतिः। समना। सऽदेवा। सम्ऽवत्सरम्। हविषा। वर्धयन्ती। श्रोत्रम्। चक्षुः। प्राणः। अच्छिन्नः। न। अस्तु। अच्छिन्नाः। वयम्। आयुषः। वर्चसः ॥५८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
विषय - 'घृतस्य जूतिः समना सदेवा'
पदार्थ -
१. (घृतस्य) = [ दीप्ती] उस दीस सर्वोत्कृष्ट तेज परमात्मा का (जूतिः) = ज्ञान [मतिर्मनीषा जूतिः स्मृति: संकल्पः क्रतुरसुः कामो वश इति सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति ऐ० आ० २.६.१] (समना) = [सम् अना] हमें सम्यक् प्राणित करनेवाला है। (सदेवा:) = यह ज्ञान दिव्यगुणों से युक्त है-हमें दिव्यगुणसम्पन्न बनानेवाला है। यह ज्ञान (संवत्सरम्) = हमारे जीवनकाल को (हविषा) = दानपूर्वक अदन से व यज्ञों से (वर्धयन्ती) = बढ़ाता है। प्रभु का ज्ञान हमें यज्ञमय जीवनवाला बनाता है। २. इस ज्ञान के द्वारा (न:) = हमारा (प्रोत्रं चक्षुः प्राण:) = श्रोत्र, चक्षु व प्राण (अच्छिन्नः अस्तु) = अच्छिन्न हो। (वयम्) = हम (आयुष:) = आयु से (वर्चसः) = वर्चस् से (अच्छिन्न:) = अच्छिन्न हों, अर्थात् दीर्घजीवनवाले व वर्चस्वी बनें।
भावार्थ - प्रभु का ज्ञान हमें उत्तम प्राणशक्तिबाला व दिव्यगुणोंवाला बनाता है। यह हमें यज्ञशील बनाता हुआ दीर्घजीवी करता है। इससे हमें इन्द्रियों की शक्ति, प्राणशक्ति, दीर्घजीवन व वर्चस् प्राप्त हो।
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