अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
य॒ज्ञस्य॒ चक्षुः॒ प्रभृ॑ति॒र्मुखं॑ च वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ मन॑सा जुहोमि। इ॒मं य॒ज्ञं वित॑तं वि॒श्वक॑र्म॒णा दे॒वा य॑न्तु सुमन॒स्यमा॑नाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञस्य॑। चक्षुः॑। प्रऽभृ॑तिः। मुख॑म्। च॒। वा॒चा। श्रोत्रे॑ण। मन॑सा। जु॒हो॒मि॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। विऽत॑तम्। वि॒श्वऽक॑र्मणा। आ। दे॒वाः। य॒न्तु॒। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नाः ॥५८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि। इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञस्य। चक्षुः। प्रऽभृतिः। मुखम्। च। वाचा। श्रोत्रेण। मनसा। जुहोमि। इमम्। यज्ञम्। विऽततम्। विश्वऽकर्मणा। आ। देवाः। यन्तु। सुऽमनस्यमानाः ॥५८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 5
विषय - वाचा श्रोत्रेण मनसा
पदार्थ -
१. वे प्रभु (यज्ञस्य चक्षु:) = यज्ञ के चक्षु हैं-प्रदर्शक है। (प्रभूति:) = वे ही इसके धारण करनेवाले हैं (च) = और (मुखम्) = प्रतिपादक है। वेदों के द्वारा प्रभु ने इन यज्ञों का उपदेश किया है। कर्म ब्रह्मोद्धर्व विद्धि। मैं इस यज्ञ को (वाचा) = वाणी से श्रोत्रेण कानों से व (मनसा:) = मन से (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। २. (विश्वकर्मणा) = सब कर्मों को करनेवाले प्रभु से (विततम्) = विस्तृत किये गये (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यन्तु) = प्राप्त हों और (सुमनस्यमाना:) सौमनस्य = को प्राप्त करनेवाले हों।
भावार्थ - प्रभु ही यज्ञों के प्रदर्शक, धारक व प्रतिपादक हैं। इन यज्ञों को हम वाणी से मन्त्र बोलते हुए, कानों से प्रभु-महिमा को सुनते हुए, हृदय में प्रभु-स्मरण करते हुए करते हैं। वस्तुत: प्रभु द्वारा ही इन यज्ञों का विस्तार हुआ है। हम देव व सौमनस्यवाले बनकर इन यज्ञों में प्रवृत्त हो।
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