अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
उपा॒स्मान्प्रा॒णो ह्व॑यता॒मुप॑ प्रा॒णं ह॑वामहे। वर्चो॑ जग्राह पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं॒ वर्चः॒ सोमो॒ बृह॒स्पति॑र्विध॒त्ता ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑। अ॒स्मान्। प्रा॒णः। ह्व॒य॒ता॒म्। उप॑। व॒यम्। प्रा॒णम्। ह॒वा॒म॒हे॒। वर्चः॑। ज॒ग्रा॒ह॒। पृ॒थि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। वर्चः॑। सोमः॑। बृह॒स्पतिः॑। वि॒ऽध॒त्ता ॥५८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उपास्मान्प्राणो ह्वयतामुप प्राणं हवामहे। वर्चो जग्राह पृथिव्यन्तरिक्षं वर्चः सोमो बृहस्पतिर्विधत्ता ॥
स्वर रहित पद पाठउप। अस्मान्। प्राणः। ह्वयताम्। उप। वयम्। प्राणम्। हवामहे। वर्चः। जग्राह। पृथिवी। अन्तरिक्षम्। वर्चः। सोमः। बृहस्पतिः। विऽधत्ता ॥५८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
विषय - प्राण+वर्चस्
पदार्थ -
१. (अस्मान्) = मानसयज्ञ [प्रभु-ध्यान] के प्रवर्तक हम लोगों को (प्राण: उपह्वयताम्) = शरीरधारक पञ्चवृत्तिक वायु चिरकाल के जीवन के लिए अनुज्ञा दे। (वयम्) = हम (प्राणम्) = प्राण को (उपहवामहे) = चिरकाल तक हमारे शरीरों में रहने के लिए प्रार्थित करते हैं। २. (पृथिवी) = यह हमारा शरीररूप पृथिवीलोक तथा (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष (वर्च:जग्राह) = तेजस्विता को स्वीकार करता है। (सोमः) = सौम्यता, (बृहस्पति:) = ज्ञान, (विधा) = विशेषरूप से धारण करनेवाला (अग्नितत्व) = ये सब (वर्च:) = तेज को धारण करते हैं।
भावार्थ - हम प्राणशक्ति-सम्पन्न बनें। हमारा शरीर व हृदय वर्चस्वाला हो। 'सौम्यता, ज्ञान व अग्नितत्त्व' हमें वर्चस्वी बनाएँ।
इस भाष्य को एडिट करें