अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - विराट्स्थाना त्रिष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
स्वस्ति॑तं मे सुप्रा॒तः सु॑सा॒यं सु॑दि॒वं सु॑मृ॒गं सु॑शकु॒नं मे॑ अस्तु। सु॒हव॑मग्ने स्व॒स्त्यम॒र्त्यं ग॒त्वा पुन॒राया॑भि॒नन्द॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठस्वस्ति॑तम्। मे॒। सु॒ऽप्रा॒तः। सु॒ऽसा॒यम्। सु॒ऽदि॒वम्। सु॒ऽमृ॒गम्। सु॒ऽश॒कुन॑म्। मे॒।अ॒स्तु॒। सु॒ऽहव॑म्। अ॒ग्ने॒। स्व॒स्ति। अ॒मर्त्य॑म्। ग॒त्वा। पुनः॑। आय॑। अ॒भि॒ऽनन्द॑न् ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तितं मे सुप्रातः सुसायं सुदिवं सुमृगं सुशकुनं मे अस्तु। सुहवमग्ने स्वस्त्यमर्त्यं गत्वा पुनरायाभिनन्दन् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तितम्। मे। सुऽप्रातः। सुऽसायम्। सुऽदिवम्। सुऽमृगम्। सुऽशकुनम्। मे।अस्तु। सुऽहवम्। अग्ने। स्वस्ति। अमर्त्यम्। गत्वा। पुनः। आय। अभिऽनन्दन् ॥८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
विषय - सुमृगं-सुशकुनम्
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = प्रभो। (मे) = मेरे लिए (सु-अस्तितम्) = सूर्य का अस्तकाल कल्याणप्रद हो। (सु प्रात:) = प्रभातवेला सुखमय हो। (सुसायम्) = सायंकाल सुखकारी हो। (सुदिनम्) = दिन सुखकर हो। (सुमृगं सुशकुनम् मे अस्तु) = मेरे लिए पशुओं व पक्षियों का व्यवहार उत्तम हो, अर्थात् किसी प्रकार का आधिभौतिक कष्ट हमें न प्राप्त हो। २. (सुहवम् स्वस्ति) = उत्तम प्रार्थना हमारा कल्याण करनेवाली हो। (अमर्त्यं गत्वा) = अमरता को-मोक्ष को प्राप्त करके (पुन:) = फिर (अभिनन्दन) = लोगों को आनन्दित व समृद्ध करता हुआ तू (आ अय) = लोगों में समन्तात् गतिवाला हो। लोकहित के लिए यह मुक्तात्मा पुनः जन्म लेनेवाला हो।
भावार्थ - हम इसप्रकार का उत्तम जीवन बनाएँ कि हम आधिदैविक व आधिभौतिक कष्टों से ऊपर उठे। मुक्त होकर लोकहित के लिए पुनः जन्म लें।
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