अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
ऋषिः - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - विराट्स्थाना त्रिष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
68
स्वस्ति॑तं मे सुप्रा॒तः सु॑सा॒यं सु॑दि॒वं सु॑मृ॒गं सु॑शकु॒नं मे॑ अस्तु। सु॒हव॑मग्ने स्व॒स्त्यम॒र्त्यं ग॒त्वा पुन॒राया॑भि॒नन्द॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठस्वस्ति॑तम्। मे॒। सु॒ऽप्रा॒तः। सु॒ऽसा॒यम्। सु॒ऽदि॒वम्। सु॒ऽमृ॒गम्। सु॒ऽश॒कुन॑म्। मे॒।अ॒स्तु॒। सु॒ऽहव॑म्। अ॒ग्ने॒। स्व॒स्ति। अ॒मर्त्य॑म्। ग॒त्वा। पुनः॑। आय॑। अ॒भि॒ऽनन्द॑न् ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्तितं मे सुप्रातः सुसायं सुदिवं सुमृगं सुशकुनं मे अस्तु। सुहवमग्ने स्वस्त्यमर्त्यं गत्वा पुनरायाभिनन्दन् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्तितम्। मे। सुऽप्रातः। सुऽसायम्। सुऽदिवम्। सुऽमृगम्। सुऽशकुनम्। मे।अस्तु। सुऽहवम्। अग्ने। स्वस्ति। अमर्त्यम्। गत्वा। पुनः। आय। अभिऽनन्दन् ॥८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सुख की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(सुप्रातः) सुन्दर प्रातःकाल, (सुसायम्) सुन्दर सायंकाल और (सुदिवम्) सुन्दर दिन (मे) मेरे लिये (सुमृगम्) सुन्दर पशुओं का झुण्ड तथा (सुशकुनम्) सुन्दर पक्षियों का समूह (मे) मेरे लिये (स्वस्तितम्) आनन्द [वा सुन्दर सत्ता] फैलानेवाला (अस्तु) होवे। (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! (सुहवम्) सुन्दर ग्रहण योग्य और (अमर्त्यम्) अमर [अनश्वर] (स्वस्ति) आनन्द [वा सुन्दर सत्ता] (गत्वा=गमयित्वा) प्राप्त कराकर (अभिनन्दन्) अभिनन्दन [मान] करता हुआ तू (पुनः) अवश्य करके (आय) प्राप्त हो ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य पदार्थों के ज्ञान और उपयोग से अपने समय को और अपनी सत्ता को सुधारते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त होकर स्थित सुख भोगते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(स्वस्तितम्) स्वस्ति+तनु विस्तारे-ड। आनन्दस्य सुसत्ताया वा विस्तारकम् (मे) मह्यम् (सुप्रातः) शोभनः प्रातःकालः (सुसायम्) शोभनः सायङ्कालः (सुदिवम्) शोभनं दिनम् (सुमृगम्) स नपुंसकम्। पा० २।४।१७। इति समाहारे नपुंसकम्। शोभनानां पशूनां समाहारः। (सुशकुनम्) शोभनानां पक्षिणां समाहारः (मे) मम (अस्तु) भवतु (सुहवम्) हु दानादानादनेषु-अप्। सुग्राह्यम् (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् (स्वस्ति) कल्याणम्। शोभनम्। अस्तित्वम् (अमर्त्यम्) मरणरहितम्। अनश्वरम् (गत्वा) अन्तर्गतण्यर्थः। गमयित्वा (पुनः) अवश्यम् (आय) आङ्+अय गतौ-लोट्, परस्मैपदम्। आगच्छ। प्राप्नुहि (अभिनन्दन्) मानं हर्षं वा कुर्वन् ॥
विषय
सुमृगं-सुशकुनम्
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = प्रभो। (मे) = मेरे लिए (सु-अस्तितम्) = सूर्य का अस्तकाल कल्याणप्रद हो। (सु प्रात:) = प्रभातवेला सुखमय हो। (सुसायम्) = सायंकाल सुखकारी हो। (सुदिनम्) = दिन सुखकर हो। (सुमृगं सुशकुनम् मे अस्तु) = मेरे लिए पशुओं व पक्षियों का व्यवहार उत्तम हो, अर्थात् किसी प्रकार का आधिभौतिक कष्ट हमें न प्राप्त हो। २. (सुहवम् स्वस्ति) = उत्तम प्रार्थना हमारा कल्याण करनेवाली हो। (अमर्त्यं गत्वा) = अमरता को-मोक्ष को प्राप्त करके (पुन:) = फिर (अभिनन्दन) = लोगों को आनन्दित व समृद्ध करता हुआ तू (आ अय) = लोगों में समन्तात् गतिवाला हो। लोकहित के लिए यह मुक्तात्मा पुनः जन्म लेनेवाला हो।
भावार्थ
हम इसप्रकार का उत्तम जीवन बनाएँ कि हम आधिदैविक व आधिभौतिक कष्टों से ऊपर उठे। मुक्त होकर लोकहित के लिए पुनः जन्म लें।
भाषार्थ
(स्वस्तितम्) सर्वत्र कल्याण का विस्तार हो। (मे) मेरे लिए (सुप्रातः) शोभन प्रातःकाल हो, (सु सायम्) शोभन सायंकाल हो, (सुदिवम्) शोभन दिन हो, (मे) मेरे लिए (सुमृगम्) पशु सुखकर हों, (सुशकुनम्) पक्षी सुखकर (अस्तु) हों। (अग्ने) हे जगदग्रणी परमेश्वर! (सुहवम्) ऋतुयज्ञों में दी गई उत्तम आहुतियाँ (स्वस्ति) सबके लिए कल्याणकारिणी हों। हे परमेश्वर! (अमर्त्यम्) अनश्वर मुझ जीवात्मा को (गत्वा) प्राप्त होकर, (अभिनन्दन्) और मेरी सर्वोन्मुखी समृद्धि करते हुए आप मुझे (पुनः) बार-बार (आय) प्राप्त हूजिए, दर्शन दीजिए।
टिप्पणी
[स्वस्तितम्= स्वस्ति+तन् (विस्तारे)। पुनः=प्रत्येक उपासना में बार-बार दर्शन देना। अभिनन्दन्=अभि+नदि समृद्धौ।]
विषय
नक्षत्रों का वर्णन।
भावार्थ
(मे) मेरे लिये (सु-अस्तितम्) सूर्य का अस्तकाल कल्याणप्रद हो। (सुप्रातः) प्रातःकाल प्रभातवेला सुखप्रद हो (सुसायम्) सायं काल सुखकारी हो। (सुदिवम्) दिन का काल सुखकर हो। (सुमृगम्) मृगों, वनचारी पशुओं का मेरे प्रति व्यवहार उत्तम हो। (सुशकुनम्) पक्षियों का व्यवहार (मे) मेरे लिये उत्तम (अस्तु) हो। हे (अग्ने) ने ! सूर्य या परमेश्वर ! मेरा (सुहवम्) उत्तम अग्निहोत्र (स्वस्ति) सबको कल्याणकारी हो। हे (सूर्य) या जीव तू (अभिनन्दन्) साक्षात् सबको प्रसन्न करता हुआ (अमर्त्यम्) अमर भाव, अविनश्वर भावको (गत्वा) प्राप्त होकर (पुनः ना अय) यहां पुनः आ, दर्शन दे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘स्वस्तितम्’, ‘स्वस्तितत्’ इति क्वचित्। ‘सुदिनम्’ इति सायणाभिमतः। ‘स्वस्त्यामर्त्यं गत्वा’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Nakshatras, Heavenly Bodies
Meaning
Peaceable sunset, inspiring morning, soothing evening, bright day, beautiful animal world, elevating flights of birds, everything, I pray, be good and expansive for me. O leading light of life, Agni, having given me ready response to my invocation and adoration with well-being and immortality, pray come again as harbinger of joy and celebration.
Translation
May the sunset be fine to me, fine the morning, fine the evening, fine the day; good to me be the animals and good the birds. O fire divine, may (our) prayer bring happiness. O immortal; having gone, may you come again rejoicing
Translation
Let the sub-set be nice for me and let the morning. Evening and the day be fair for me. Let it be for me the full of good beasts and good birds. O man your Suhavan, Yajna be ausgicious for all and you (after death) attaining immortality, the bliss and making yourself blessed come again (take birth again).
Translation
May the pleasant morning, the fair evening, the happy day, the beautiful animals roaming in the forest and cheering birds all be most peace-giving to me. O learned person, my good performance of sacrifice may bless me and you may come back here on earth, after attaining salvation and pleasing all.
Footnote
It may also refer to the sacrificial fire carrying the oblations to heaven and coming back with blessings to the sacrifice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(स्वस्तितम्) स्वस्ति+तनु विस्तारे-ड। आनन्दस्य सुसत्ताया वा विस्तारकम् (मे) मह्यम् (सुप्रातः) शोभनः प्रातःकालः (सुसायम्) शोभनः सायङ्कालः (सुदिवम्) शोभनं दिनम् (सुमृगम्) स नपुंसकम्। पा० २।४।१७। इति समाहारे नपुंसकम्। शोभनानां पशूनां समाहारः। (सुशकुनम्) शोभनानां पक्षिणां समाहारः (मे) मम (अस्तु) भवतु (सुहवम्) हु दानादानादनेषु-अप्। सुग्राह्यम् (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् (स्वस्ति) कल्याणम्। शोभनम्। अस्तित्वम् (अमर्त्यम्) मरणरहितम्। अनश्वरम् (गत्वा) अन्तर्गतण्यर्थः। गमयित्वा (पुनः) अवश्यम् (आय) आङ्+अय गतौ-लोट्, परस्मैपदम्। आगच्छ। प्राप्नुहि (अभिनन्दन्) मानं हर्षं वा कुर्वन् ॥
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