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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - महाबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
    107

    अ॑ष्टाविं॒शानि॑ शि॒वानि॑ श॒ग्मानि॑ स॒ह योगं॑ भजन्तु मे। योगं॒ प्र प॑द्ये॒ क्षेमं॑ च॒ क्षेमं॒ प्र प॑द्ये॒ योगं॑ च॒ नमो॑ऽहोरा॒त्राभ्या॑मस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ष्टा॒ऽविं॒शानि॑। शि॒वानि॑। श॒ग्मानि॑। स॒ह। योग॑म्। भ॒ज॒न्तु॒। मे॒। योग॑म्। प्र। प॒द्ये॒। क्षेम॑म्। च॒। क्षेम॑म्। प्र। प॒द्ये॒। योग॑म्। च॒। नमः॑। अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑म्। अ॒स्तु॒ ॥८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे। योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पद्ये योगं च नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अष्टाऽविंशानि। शिवानि। शग्मानि। सह। योगम्। भजन्तु। मे। योगम्। प्र। पद्ये। क्षेमम्। च। क्षेमम्। प्र। पद्ये। योगम्। च। नमः। अहोरात्राभ्याम्। अस्तु ॥८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अष्टाविंशानि) प्रत्येक अट्ठाइसवें [नक्षत्र] (शिवानि) कल्याणकारक और (शग्मानि) सुखदायक होकर (सह) मेल के साथ (मे) मुझ को (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य (भजन्तु) देवें। (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य को (च) और (क्षेमम्) रक्षा सामर्थ्य को [अर्थात् पान के सामर्थ्य के साथ रक्षा के सामर्थ्य को] (प्र पद्ये) मैं पाऊँ, और (क्षेमम्) रक्षा सामर्थ्य को (च) और (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य को [अर्थात् रक्षा के सामर्थ्य के साथ पाने के सामर्थ्य को] (प्र पद्ये) मैं पाऊँ, [और मुझे] (अहोरात्राभ्याम्) दोनों दिन-राति के लिये (नमः) अन्न (अस्तु) होवे ॥२॥

    भावार्थ

    सूक्त ७ में कृत्तिकाओं से लेकर भरणियों तक अट्ठाईस नक्षत्र बताये हैं। यह मन्त्र कहता है कि वे नक्षत्र चन्द्रमा के मार्ग में चक्र बनाकर घूमते हैं। इसलिये जिस किसी एक नक्षत्र को ध्रुव मानकर गणना करें तो प्रत्येक अन्तिम नक्षत्र अट्ठाईसवाँ होता है, जैसे वेद में कृत्तिकाओं से लेकर भरणी, और लोक में अश्विनी से लेकर रेवती अट्ठाईसवाँ नक्षत्र हैं। मनुष्यों को योग्य है कि नक्षत्रों की कुचाल से जो दुर्भिक्ष, वायु की अशुद्धि आधिदैविक विपत्तियाँ पृथिवी पर सूझ पड़ें, उनके निवारण के लिये अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    महर्षि दयानन्द के अनुसार अर्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय ॥हे परमेश्वर ! (अष्टाविंशानि) अट्ठाईस [दश इन्द्रिय, दश प्राण, मन बुद्धि, चित्त, अहंकार, विद्या, स्वभाव, शरीर और बल] (शिवानि) कल्याणकारक और (शग्मानि) सुखकारक होकर (सह) एक साथ (मे) मेरे (योगम्) उपासना योग को (भजन्ताम्) सेवन करें। (योगम्) उस योग को (च) और (क्षेमम्) रक्षा को [अर्थात् योग के द्वारा रक्षा को] (प्र पद्ये) मैं प्राप्त होऊँ और (क्षेमम्) रक्षा को (च) और (योगम्) योग को [अर्थात् रक्षा से योग को] (प्र पद्ये) मैं प्राप्त होऊँ, [इसलिये मेरा तुझ को] (अहोरात्राभ्याम्) दिन-राति (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥ २−(अष्टाविंशानि) तस्य पूरणे डट्। पा० ५।२।४८। अष्टाविंशति-डट् पूरणार्थे। ति विंशतेर्डिति। पा० ६।४।१४२। इति तिलोपः। द्व्यष्टनः संख्यायाम०। पा० ६।३।४७। इति अष्टशब्दस्य आत्त्वम्। प्रत्येकमष्टाविंशतेः संख्यायाः पूरणानीति सर्वाणि अष्टाविंशानीति (शिवानि) कल्याणकारकाणि (शग्मानि) सुखकारकाणि (सह) साकम् (योगम्) प्राप्तिसामर्थ्यम्। उपासनायोगम् (भजन्तु) विभक्तं कुर्वन्तु। सेवन्ताम् (मे) मह्यम्। मम (योगम्) (प्र पद्ये) प्राप्नुयाम् (क्षेमम्) रक्षासामर्थ्यम् (च) (क्षेमम्) (प्र पद्ये) (योगम्) (च) (नमः) अन्नम्-निघ० २।७। नमस्कारः। (अहोरात्राभ्याम्) अहोरात्रे अनुकूलयितुम्। दिवसे रात्रौ च (अस्तु) भवतु ॥

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    विषय

    शिव+शग्म

    पदार्थ

    १. (अष्टाविंशानि) = गत सूक्त में वर्णित अठाईस नक्षत्र (शिवानि) = हमारे लिए कल्याणकर हों। (शग्मानि) = हमारे लिए सुख देनेवाले हों। इनकी अनुकूलता हमें मानस व शारीर-शान्ति देनेवाली हो। ये नक्षत्र (मे सह योगं भजन्तु) = मेरे साथ मेल को प्राप्त हों। मैं इनसे उचित प्रेरणाओं को लेनेवाला बनूं। २. इन नक्षत्रों से उचित प्रेरणाओं को लेता हुआ मैं (योगं प्रपद्ये क्षेमं च) = योग और क्षेम को प्राप्त करूँ। (क्षेमं प्रपद्ये योगं च) = क्षेम और योग को प्राप्त करूँ। अप्रास की प्राप्ति ही 'योग' है, प्राप्त का रक्षण क्षेम' है। मैं जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं को जुटा पाऊँ और उनका रक्षण कर पाऊँ। योग व क्षेम' दोनों को मैं समानरूप से महत्त्व हूँ। इसप्रकार जीवन बिताता हुआ मैं यह ध्यान रष कि (अहोरात्राभ्याम्) = दिन व रात से (नमः अस्तु) = मेरा उस प्रभु के प्रति नमन हो। मैं दिन व रात को प्रभु-नमन से ही प्रारम्भ करूँ।

    भावार्थ

    मुझे सब नक्षत्रों की अनुकूलता प्राप्त हो। मैं उनसे उचित प्रेरणाओं को ग्रहण करूं। योगक्षेम को सिद्ध करता हुआ प्रात:-सायं प्रभु के प्रति नमन की वृत्तिवाला बनूँ।

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    भाषार्थ

    (अष्टाविंशानि) २८ नक्षत्रों में प्रत्येक २८वां नक्षत्र, इस प्रकार के २८ नक्षत्र (शिवानि) मङ्गलकारी, और (शग्मानि) शान्ति पहुँचाने वाले हों। और ये सब नक्षत्र अर्थात् नक्षत्रकाल (सह) मिलकर (मे) मेरे लिए (योगम्) अभीष्ट की प्राप्ति (भजन्तु) कराएँ, या अभीष्ट की प्राप्ति में (सह) सहयोगी बनें। और मैं (योगम्) अभीष्ट को (प्र पद्ये) प्राप्त करूँ। (च) और (क्षेमम्) प्राप्त अभीष्ट की सुरक्षा करूँ, (क्षेमम्) प्राप्त अभीष्ट की सुरक्षा करूँ, (च) और (योगम्) उत्तरोत्तर अभीष्टों को प्राप्त करता रहूँ। (अहोरात्राभ्याम्) तथा दिन-रात जगत्स्वामी को (नमः अस्तु) नमस्कार करता रहूँ।

    टिप्पणी

    [शिवानि शग्मानि सह= इन शब्दों द्वारा यह सूचना दी है कि सब नक्षत्र या नक्षत्रकाल मंगलकारी और शान्तिदायक हो सकते हैं, यदि समग्र प्रजाजन ऋत्वनुकूल यज्ञ करते रहें। और पुण्यकर्म करते रहें, तथा दिन-रात परमेश्वरीय नियमों के प्रतिपालन में तत्पर रहते हुए परमेश्वरोपासनाएँ करते रहें। “योगं च प्रपद्ये क्षेमं च, क्षेमं च प्रपद्ये योगं च” द्वारा यह दर्शाया है कि हम अभीष्ट को प्राप्त कर उसकी सुरक्षा करें। और सुरक्षा करते हुए उत्तरोत्तर अभीष्टों को पुनः-पुनः प्राप्त करते रहें। “मे” पद में एकवचन है। इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्यकर्म का निर्देश किया है। अहोरात्राभ्याम्=तृतीयाविभक्ति, द्विवचन।]

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    विषय

    नक्षत्रों का वर्णन।

    भावार्थ

    (अष्टाविंशानि) पूर्व कहे अट्ठाईस नक्षत्र (शिवानि) कल्याणकारी, (शग्मानि) सुखकारी होकर (मे) मेरे लिये (सह) चन्द्र के साथ (योगम् भजन्तु) योग प्राप्त करे। तदनुसार मैं भी (योगं प्रपद्ये) योग, अलभ्य वस्तु की प्राप्ति करूं। (क्षेमं च प्रपद्ये) प्राप्त वस्तु को सुरक्षित खखूं। और सदा (क्षेमं च प्रपद्ये योगं च) कल्याण और सुखप्रद पदार्थों को प्राप्त करता रहूं। (अहोरात्राभ्यां नमः अस्तु) दिन और रात्रि दोनों काल मेरे अनुकूल मेरे अधीन रहें। दोनों का मैं सद्-उपयोग करूं।

    टिप्पणी

    ‘सह योगम्’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Nakshatras, Heavenly Bodies

    Meaning

    May the twenty-eight nakshatras be auspicious harbingers of peace and help me advance with higher achievement more and more. Let me achieve more and more, let me protect and preserve what I achieve, and as I preserve and build, let me achieve much more and still more. And thus I offer homage and salutations to the Lord Supreme by day and by night.

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    Translation

    May the twenty-eight (asterisms), propitious and delightsome, together grant me acquition. May I have acquisition as well as retention; may I have retention as well as acquisition. Homage be to day and night.

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    Translation

    Let these twenty-eight lunar mansions be favorable and propitious for me and let them have their contact with the moon. May I, by Gods’ grace, attain whatever is not attained, preserve whatever has been attained. I may, attain attainable and preserve the prosperous one. Let there be good dealings (on my part) through day and night.

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    Translation

    The aforesaid twenty-eight constellations along with the moon may provide peace and happiness to me, so that I may acquire the desired object and be able to keep it intact and I may make the right use of my time all through day and night.

    Footnote

    Repetition of Yoga and Kshema twice is for the sake of emphasis. नमः right use.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    महर्षि दयानन्द के अनुसार अर्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय ॥हे परमेश्वर ! (अष्टाविंशानि) अट्ठाईस [दश इन्द्रिय, दश प्राण, मन बुद्धि, चित्त, अहंकार, विद्या, स्वभाव, शरीर और बल] (शिवानि) कल्याणकारक और (शग्मानि) सुखकारक होकर (सह) एक साथ (मे) मेरे (योगम्) उपासना योग को (भजन्ताम्) सेवन करें। (योगम्) उस योग को (च) और (क्षेमम्) रक्षा को [अर्थात् योग के द्वारा रक्षा को] (प्र पद्ये) मैं प्राप्त होऊँ और (क्षेमम्) रक्षा को (च) और (योगम्) योग को [अर्थात् रक्षा से योग को] (प्र पद्ये) मैं प्राप्त होऊँ, [इसलिये मेरा तुझ को] (अहोरात्राभ्याम्) दिन-राति (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥ २−(अष्टाविंशानि) तस्य पूरणे डट्। पा० ५।२।४८। अष्टाविंशति-डट् पूरणार्थे। ति विंशतेर्डिति। पा० ६।४।१४२। इति तिलोपः। द्व्यष्टनः संख्यायाम०। पा० ६।३।४७। इति अष्टशब्दस्य आत्त्वम्। प्रत्येकमष्टाविंशतेः संख्यायाः पूरणानीति सर्वाणि अष्टाविंशानीति (शिवानि) कल्याणकारकाणि (शग्मानि) सुखकारकाणि (सह) साकम् (योगम्) प्राप्तिसामर्थ्यम्। उपासनायोगम् (भजन्तु) विभक्तं कुर्वन्तु। सेवन्ताम् (मे) मह्यम्। मम (योगम्) (प्र पद्ये) प्राप्नुयाम् (क्षेमम्) रक्षासामर्थ्यम् (च) (क्षेमम्) (प्र पद्ये) (योगम्) (च) (नमः) अन्नम्-निघ० २।७। नमस्कारः। (अहोरात्राभ्याम्) अहोरात्रे अनुकूलयितुम्। दिवसे रात्रौ च (अस्तु) भवतु ॥

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