अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
ऋषिः - गार्ग्यः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
65
इ॒मा या ब्र॑ह्मणस्पते॒ विषु॑ची॒र्वात॒ ईर॑ते। स॒ध्रीची॑रिन्द्र॒ ताः कृ॒त्वा मह्यं॑ शि॒वत॑मास्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः। याः। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। विषू॑चीः। वातः॑। ईर॑ते। स॒ध्रीचीः॑। इ॒न्द्रः॒। ताः। कृ॒त्वा। मह्य॑म्। शि॒वऽत॑माः। कृ॒धि॒ ॥८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा या ब्रह्मणस्पते विषुचीर्वात ईरते। सध्रीचीरिन्द्र ताः कृत्वा मह्यं शिवतमास्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठइमाः। याः। ब्रह्मणः। पते। विषूचीः। वातः। ईरते। सध्रीचीः। इन्द्रः। ताः। कृत्वा। मह्यम्। शिवऽतमाः। कृधि ॥८.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सुख की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मणःपते) हे ब्रह्माण्ड के स्वामी परमात्मन् ! (इमाः) इन (याः) जिन (विषूचीः) विविध फैली हुई [दिशाओं] को (वातः) पवन (ईरते) पहुँचाता है। (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर ! (ताः) उनको (सध्रीचीः) परस्पर पूजनीय (कृत्वा) करके (मह्यम्) मेरे लिये (शिवतमाः) अत्यन्त सुखकारिणी (कृधि) कर ॥६॥
भावार्थ
पूर्वादि सब दिशाओं में वायु जल आदि पदार्थ परिपूर्ण हैं, मनुष्य सर्वत्र परमात्मा के विचार के साथ परस्पर सहाय करके सुख प्राप्त करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(इमाः) परिदृश्यमानाः (याः) (ब्रह्मणस्पते) हे ब्रह्माण्डस्य स्वामिन् परमात्मन् (विषूचीः) विष्वगञ्चनाः। विविधव्यापिका दिशाः (वातः) वायुः (ईरते) भौवादिकः। गच्छति। प्राप्नोति (सध्रीचीः) सह+अञ्चतेः-क्विन्, ङीप्, सहस्य सध्रि आदेशः। परस्परपूजनीयाः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ताः) दिशः (कृत्वा) विधाय (मह्यम्) मदर्थम् (शिवतमाः) अत्यर्थं सुखकारिणीः (कृधि) कुरु ॥
विषय
विपरीत वात में न बह जाना
पदार्थ
१. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (इमाः याः) = इन जिन (विषूची:) = विविध विपरीत दिशाओं को (वात:) = वायु (ईरते) = चलता है, ये जो उल्टी-उल्टी आवञ्छनीय हवाएँ चल पड़ती हैं हे (इन्द्र:) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (ता:) = उन सबको (सधीचीः कृत्वा) = [सह अञ्चन्ति] यथायोग्य मिलकर चलनेवाला करके (महाम्) = मेरे लिए (शिवतमा:) = कल्याणकर (कृभि) = कीजिए।
भावार्थ
'ब्रह्मणस्पति व इन्द्र' नाम से प्रभु का स्मरण करते हुए हम भी ज्ञान के स्वामी व जितेन्द्रिय बनें। इसप्रकार हम उल्टी हवाओं में न बहकर सक्रियाओं में ही प्रवृत्त रहेंगे। ज्ञान व जितेन्द्रियता हमारे रक्षक हैं।
भाषार्थ
(ब्रह्मणस्पते) हे ब्रह्माण्ड के पति (इन्द्र) परमेश्वर! (याः) जो (इमाः) ये (विषूचीः) विषूचिकाएँ (वाते) वायु में (ईरते) काम्पती हैं, (ताः) उन्हें (सध्रीचीः) मेरे अनुकूल (कृत्वा) करके (मह्यम्) मेरे लिए (शिवतमाः) कल्याण करनेवाली (कृधि) कर दीजिए।
टिप्पणी
[विषूचीः= सम्भवतः विषूचिका (cholera) रोग है। विषूचिका देशभेद कालभेद और व्यक्तिभेद के कारण, तथा उग्र और मृदु आदि की दृष्टि से नानारूप है। इसके कीटाणु शुद्ध वायु में मानो मृत्युभय से काम्पते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। मन्त्र ५ और ६ में ऋतुविकारों का वर्णन हुआ है। ऋत्वनुकूल यज्ञों तथा वायु की पवित्रता के होते ये विकार नहीं होने पाते।]
विषय
नक्षत्रों का वर्णन।
भावार्थ
हे (ब्रह्मणस्पते) वेद के जानने हारे ब्रह्मन् ! विद्वन् ! तेरे (या इमाः) इन जिन (विषूचीः) नाना दिशाओं को (वातः) वायु प्रबल वात (ईरते) कंपा देता है (ताः) उनको हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् आचार्य या ईश्वर ! तू (संध्रीचीः) एक साथ अपने अपने स्थान पर यथास्थान (कृत्वा) करके तु उनको (मह्यं) मेरे लिये (शिवतमाः कृधि) अत्यन्त कल्याणकारी बना।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Nakshatras, Heavenly Bodies
Meaning
O Brahmanaspati, all these winds that blow around counter to each other and to me, O Lord Omnipotent, pray turn them all harmonious and make them auspicious to me.
Translation
O Lord of knowledge, the winds that blow from these diverse directions, making them to blow in one and right direction, may you make them most propitious for me.
Translation
O Almighty God, O the Master of the universe, you making them gracious and for me turn accordant these various quarters to which the wind thrills.
Translation
O Lord of the Vedic learning and the Glorious God, setting these quarters, which the strong wind agitates, make them all most peaceful for me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(इमाः) परिदृश्यमानाः (याः) (ब्रह्मणस्पते) हे ब्रह्माण्डस्य स्वामिन् परमात्मन् (विषूचीः) विष्वगञ्चनाः। विविधव्यापिका दिशाः (वातः) वायुः (ईरते) भौवादिकः। गच्छति। प्राप्नोति (सध्रीचीः) सह+अञ्चतेः-क्विन्, ङीप्, सहस्य सध्रि आदेशः। परस्परपूजनीयाः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ताः) दिशः (कृत्वा) विधाय (मह्यम्) मदर्थम् (शिवतमाः) अत्यर्थं सुखकारिणीः (कृधि) कुरु ॥
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