अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
अ॑नुह॒वं प॑रिह॒वं प॑रिवा॒दं प॑रिक्ष॒वम्। सर्वै॑र्मे रिक्तकु॒म्भान्परा॒ तान्त्सवि॑तः सुव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नु॒ऽह॒वम्। प॒रि॒ऽह॒वम्। प॒रि॒ऽवा॒दम्। प॒रि॒ऽक्ष॒वम्। सर्वैः॑। मे॒। रि॒क्त॒ऽकु॒म्भान्। परा॑। तान्। स॒वि॒तः॒। सु॒व॒ ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुहवं परिहवं परिवादं परिक्षवम्। सर्वैर्मे रिक्तकुम्भान्परा तान्त्सवितः सुव ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽहवम्। परिऽहवम्। परिऽवादम्। परिऽक्षवम्। सर्वैः। मे। रिक्तऽकुम्भान्। परा। तान्। सवितः। सुव ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
विषय - रिक्तकुम्भान् परासुव
पदार्थ -
१. हे (सवितः) = सर्वप्रेरक प्रभो! आप (अनुहवम्) = स्पर्धा को, (परिहवम्) = वर्जनीय संघर्ष को, (परिवादम) = निन्दा को (परिक्षवम्) = क्रोधजनित नासिका की फुरफुराहट को, इन (सर्वैः) = सब दोषों के साथ (मे) = मेरी (तान् रिक्तकुम्भान्) = उन खाली घड़ों के समान निःसार बातों को (परासुव) = दूर कीजिए।
भावार्थ - मैं स्पर्धा आदि से बचूँ और व्यर्थ की बातों से सदा दूर रहूँ।
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