अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - द्विपदा निचृत्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
स्व॒स्ति नो॑ अ॒स्त्वभ॑यं नो अस्तु॒ नमो॑ऽहोर॒त्राभ्या॑मस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति। नः॒। अ॒स्तु॒। अभ॑यम्। नः॒। अ॒स्तु॒। नमः॑। अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑म्। अ॒स्तु॒ ॥८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्ति नो अस्त्वभयं नो अस्तु नमोऽहोरत्राभ्यामस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्ति। नः। अस्तु। अभयम्। नः। अस्तु। नमः। अहोरात्राभ्याम्। अस्तु ॥८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
विषय - स्वस्ति+अभय
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार उल्टी हवाओं में न बह जाने पर (नः स्वस्ति अस्तु) = हमारा कल्याण हो तथा (न: अभयम् अस्तु) = हमें निर्भयता प्राप्त हो। २. (अहोरात्राभ्याम्) = दिन व रात्रि से (नमः अस्तु) = हमारा प्रभु के प्रति नमन हो। हम प्रात:-सायं प्रभु-चरणों में नमस्कार करनेवाले बनें। यह नमन ही हमें उल्टी हवाओं में बह जाने से बचाएगा। अन्यथा संसार का आकर्षण अति प्रबल है, इससे बचना सरल नहीं।
भावार्थ - हम प्रातः-सायं प्रभु-चरणों में नतमस्तक होते हुए कल्याण व निर्भयता प्राप्त करें। प्रभु के प्रति नमन के द्वारा प्रभु के गुणों का धारण करनेवाला यह 'वसिष्ठ व ब्रह्मा' ही ९ से १२ तक सूक्तों का ऋषि है। यह शान्ति की कामना करता हुआ प्रार्थना करता है कि -
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