अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक्
सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त
प्रति॒ तम॒भि च॑र॒ यो ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । तम् । अ॒भि । च॒र॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति तमभि चर यो ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । तम् । अभि । चर । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
विषय - काम-विध्वंस
पदार्थ -
१. (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हमसे अप्रीति करता है और (यं वयं द्विष्मः) = जिसे हम नहीं चाहते (तम् प्रति) = उसकी ओर (अभिचर) = आक्रमण करनेवाला हो। प्रभु जीव से कहते हैं कि काम अर्थात् बुत्र ज्ञान का नाश करके मनुष्य को मुझसे दूर करता है। इसप्रकार यह कामदेव 'महादेव' का शत्रु है। महादेव की नेत्र-ज्योति से इसके भस्म होने का उल्लेख है। कामदेव महादेव को नहीं चाहता और महादेव को कामदेव अभिप्रेत नहीं। प्रभु का सखा बननेवाले जीव का यह कर्तव्य है कि वह काम पर आक्रमण कर उसे पराभूत करे। इसके लिए चाहिए यह कि यह (श्रेयांसं आप्नुहि) = अपने से श्रेष्ठों को प्राप्त करे और (समम् अतिक्राम) = बराबरवालों को लाँघ जाए। -
भावार्थ -
प्रभु के अप्रिय 'काम' पर आक्रमण करके हम उसे पराभूत करें और आगे बढ़ें।
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