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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक् सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त

    शु॒क्रोऽसि॑ भ्रा॒जोऽसि॒ स्व॑रसि॒ ज्योति॑रसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒क्र: । अ॒सि॒ । भ्रा॒ज: । अ॒सि॒ । स्व᳡: । अ॒सि॒ । ज्योति॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुक्र: । असि । भ्राज: । असि । स्व: । असि । ज्योति: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (शुक्रः असि) = तू पवित्र व शक्तिशाली बना है। 'काम' ही अपवित्रता व अशक्ति का हेतु था। काम गया, अपवित्रता व अशक्ति भी गई। आज तू भाजः असि-मानस व शरीर स्वास्थ्य के कारण चमक उठा है। २. स्व: असि-[स्वृ शब्दे] तू ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाला है। काम ने ही तो तुझे इनसे विमुख किया हुआ था। इसका विध्वंस तुझे ज्ञान प्रवण बनानेवाला है। ज्ञान-वाणियों का उच्चारण करते हुए तू ज्योतिः असि-ज्ञान का प्रकाश ही हो गया है। ज्ञान की वाणियों के उच्चारण से ज्ञान-ज्योति को बढ़ना ही था। २. ऐसा तू आपहि श्रेयांसम-अपने से श्रेष्ठों को प्रास कर और समम् अतिक्राम-बराबरवालों को लाँघ जा।

    भावार्थ -

    काम-विध्वंस से मनुष्य शक्तिशाली बनकर चमक उठता है और ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए ज्ञान-ज्योतिवाला हो जाता है।

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