Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 11

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - पिपीलिकमध्यानिचृद्गायत्री सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त

    सू॒रिर॑सि वर्चो॒धा अ॑सि तनू॒पानो॑ ऽसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सू॒रि: । अ॒सि॒ । व॒र्च॒:ऽधा: । अ॒सि॒ । त॒नू॒ऽपान॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूरिरसि वर्चोधा असि तनूपानो ऽसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूरि: । असि । वर्च:ऽधा: । असि । तनूऽपान: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्र के अनुसार काम का विध्वंस करके तू (सूरिः असि) = ज्ञानी बना है। काम ने ही ज्ञान पर पर्दा डाला हुआ था। पर्दा हटा और तेरे ज्ञान का प्रकाश चमक उठा। २. (वर्णोधा असि) = तू अपने में वर्चस् का धारण करनेवाला बना है। कामवासना ही शक्ति को व्ययित [खर्च] करनेवाली थी, उसका विध्वंस होते ही शक्ति का सञ्चय सम्भव हो गया। ३. इसप्रकार मस्तिष्क में ज्ञान व शरीर में शक्ति स्थापित करके (तनपान: असि) = तु शरीर का ठीक रक्षण करनेवाला बना है। ४. ऐसा बनने के लिए तू (आप्नुहि श्रेयांसम्) = श्रेष्ठों को प्राप्त कर और (समम् अतिक्राम) = बराबरवालों को लौष जा।

    भावार्थ -

    हम ज्ञानी बनें, वर्चस् को धारण करें और इसप्रकार शरीर का रक्षण करें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top