अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा साम्नीबृहती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अ॑राय॒क्षय॑णमस्यराय॒चात॑नं मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒रा॒य॒ऽक्षय॑णम् । अ॒सि॒ । अ॒रा॒य॒ऽचात॑नम् । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरायक्षयणमस्यरायचातनं मे दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठअरायऽक्षयणम् । असि । अरायऽचातनम् । मे । दा: । स्वाहा ॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
विषय - अराय-चातन
पदार्थ -
१. 'रा दाने' धातु से राय शब्द बना है। यह दान का वाचक है। न देने की वृत्ति को 'अराय' कहते हैं। हे प्रभो! आप (अरायक्षयणम् असि) = न देने की वृत्ति का ध्वंस करते हैं। प्रभु तो देने ही-देनेवाले हैं, वहाँ 'न देने का भाव' है ही नहीं। हे प्रभो! आप (में) = मुझे भी (अरायचातनम्) = न देने की वृत्ति के नाशन की शक्ति (दा:) = दीजिए। २. मैं सदा देनेवाला ही बनूं। इस दान ही से तो मैं पापों का नाश [दाप्-लवने-काटना] कर पाऊँगा और यह दान ही मुझे शुद्ध बनाएगा [दैप् शोधने]। (स्वाहा) = यह कितनी शुभ प्रार्थना है कि मेरी अदानवृत्ति को नष्ट कीजिए। ।
भावार्थ -
मैं सदा देने की वृत्तिवाला बनें।
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