अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा साम्नीबृहती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
स॑दान्वा॒क्षय॑णमसि सदान्वा॒चात॑नं मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒दा॒न्वा॒ऽक्षय॑णम् । अ॒सि॒ । स॒दा॒न्वा॒ऽचात॑नम् । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सदान्वाक्षयणमसि सदान्वाचातनं मे दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसदान्वाऽक्षयणम् । असि । सदान्वाऽचातनम् । मे । दा: । स्वाहा ॥१८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
विषय - 'हित-मित-मधुर'
पदार्थ -
१. ('सदा नोनूयमानाः सदान्वा')-हर समय चीखते-चिल्लाते रहने व अपशब्द बोलने की वृत्ति 'सदान्वा' है। यह वृत्ति 'वचो गुप्ति' से ठीक विपरीत है। यह सब उन्नति का ध्वंस कर देती हैं। हे प्रभो! आप (सदान्वाक्षयणम् असि) = आक्रोशकारिणी वृत्ति का ध्वंस करनेवाले हैं, (मे) = मेरे लिए (सदान्वाचातनम्) = इस आक्रोशकारिणी वृत्ति को नष्ट करने की शक्ति (दा:) = दीजिए। २. मैं सदा संयत वाक् बनूं। कभी कोई व्यर्थ का शब्द व अपशब्द मेरे मुख से न निकले। (स्वाहा) = कितनी सुन्दर है यह प्रार्थना ! हे प्रभो! आपकी कृपा से मेरी वाणी सुगुस हो और यह 'हित-मित-मधुर' भाषण करनेवाली हो।
भावार्थ -
मैं अपशब्द न बोलूँ। मेरी वाणी सूनुता हो।
विशेष -
सूक्त का भाव यही है कि मैं उन्नति के विरोधी तत्त्वों को नष्ट करके आगे बढ़नेवाला बनूं। ये ही भाव अगले सूक्त में कुछ विस्तार से हैं। उनका ऋषि 'अथर्वां' है न डाँवाडोल होनेवाला [अ-थर्व] अथवा आत्मनिरीक्षण करनेवाला [अथ अर्वा] । यह प्रार्थना करता है