अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा साम्नीबृहती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
भ्रा॑तृव्य॒क्षय॑णमसि भ्रातृव्य॒चात॑नं मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठभ्रा॒तृ॒व्य॒ऽक्षय॑णम् । अ॒सि॒ । भ्रा॒तृ॒व्य॒ऽचात॑नम् । मे । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
भ्रातृव्यक्षयणमसि भ्रातृव्यचातनं मे दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठभ्रातृव्यऽक्षयणम् । असि । भ्रातृव्यऽचातनम् । मे । दा: । स्वाहा ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - भ्रातृव्य-नाश
पदार्थ -
१. (भाता:) = भाई होते हुए जो शत्रु की भाँति आचरण करने लगता है वह भ्रातृव्य' है। ये आत्मीय होते हुए शत्र बन जाते हैं। इन आत्मीय शत्रुओं से भी अशान्ति बनी रहती है। हे प्रभो! आप (भ्रातृव्यक्षयणम् असि) = मेरे आत्मीय शत्रुओं को समाप्त करनेवाले हैं। (मे) = मुझे (भातव्यचातनम्) = इन आत्मीय शत्रुओं के नाश का सामर्थ्य (दा:) = दीजिए। आपकी कृपा से मैं इन्हें समाप्त कर सकू। इनकी भ्रातृव्यता को समाप्त करके इन्हें भ्राता बना पाऊँ। २. (स्वाहा) = [स्वा बाक आह] मेरी वाणी सदा ऐसी प्रार्थना करनेवाली हो कि मेरे 'भ्रातृव्य' भ्रातृव्य न रहकर भ्राता बन जाएँ, तभी वस्तुत: मैं शान्त वातावरण में जीवन को सुन्दर बना सकूँगा।
भावार्थ -
प्रभु मुझे भ्रातृव्यों से होनेवाली अशान्ति से बचाने का अनुग्रह करें।
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