अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - मनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
यथे॒दं भूम्या॒ अधि॒ तृणं॒ वातो॑ मथा॒यति॑। ए॒वा म॑थ्नामि ते॒ मनो॒ यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । इ॒दम् । भूम्या॑: । अधि॑ । तृण॑म् । वात॑: । म॒था॒यति॑ । ए॒व । म॒थ्ना॒मि॒ । ते॒ । मन॑: । यथा॑ । माम् । का॒मिनी॑ । अस॑: । यथा॑ । मत् । न । अप॑ऽगा: । अस॑: ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथायति। एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । इदम् । भूम्या: । अधि । तृणम् । वात: । मथायति । एव । मथ्नामि । ते । मन: । यथा । माम् । कामिनी । अस: । यथा । मत् । न । अपऽगा: । अस: ॥३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
विषय - पति-पत्नी का परस्पर प्रेम
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (भूम्या अधि) = इस भूमि पर (इदं तृणम्) = इस तृण को वातः वायु (मथायति) = आन्दोलित कर देता है, (एव) = इसप्रकार हे युवति! (ते मनः) = तेरे मन को (मनामि) = मैं आलोडित करता हूँ, (यथा) = जिससे (मां कामिनी अस:) = तू मुझे चाहनेवाली हो (यथा) = जिससे (मत्) = मुझसे (अपगा:) = दूर जानेवाली (न असः) = न हो। इन शब्दों में एक युवक एक युवति के मन को अपनी ओर आकृष्ट करता है। यदि युवति में युवक के लिए आकर्षण न होगा अथवा युवति के लिए युवक में आकर्षण न होगा तो उनका परस्पर सम्बन्ध देर तक न रह पाएगा। यह सम्बन्ध की कटुता उनके जीवन के लिए दुष्परिणाम पैदा करेगी। परस्पर का प्रेम आवश्यक है।
भावार्थ -
युवक व युवति परस्पर प्रेम से एक-दूसरे के साथी बनते हैं, तो परस्पर के व्रतों को ठीक निभाते हुए एक-दूसरे की शान्ति और दीर्घजीवन का कारण बनते हैं।
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