अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - दम्पती
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
एयम॑ग॒न्पति॑कामा॒ जनि॑कामो॒ऽहमाग॑मम्। अश्वः॒ कनि॑क्रद॒द्यथा॒ भगे॑ना॒हं स॒हाग॑मम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒यम् । अ॒ग॒न् । पति॑ऽकामा । जनि॑ऽकाम: । अ॒हम् । आ । अ॒ग॒म॒म् । अश्व॑: । कनि॑क्रदत् । यथा॑ । भगे॑न । अ॒हम् । स॒ह । आ । अ॒ग॒म॒म् ॥३०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एयमगन्पतिकामा जनिकामोऽहमागमम्। अश्वः कनिक्रदद्यथा भगेनाहं सहागमम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इयम् । अगन् । पतिऽकामा । जनिऽकाम: । अहम् । आ । अगमम् । अश्व: । कनिक्रदत् । यथा । भगेन । अहम् । सह । आ । अगमम् ॥३०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
विषय - पतिकामा-जनिकामः
पदार्थ -
१. (इयम्) = यह (पतिकामा) = पति को प्राप्त करने की कामनावाली (आ अगन्) = प्राप्त हुई है। इन शब्दों से स्पष्ट है कि युवति अपने पूर्ण यौवन में आकर पति को प्राप्त करने की कामनावाली हुई है। इसीप्रकार (अहम्) = मैं (जनिकाम:) = पत्नी की कामनावाला (आगमम्) = आया हूँ। युवक भी पूर्ण तारूण्य को प्राप्त करके पत्नी की कामनावाला हुआ है। "युवक व युवति परस्पर एक दूसरे को चाहते हैं, यह भाव भी इन शब्दों से व्यक्त हो रहा है। २. युवक कहता है कि (यथा) = जैसे (कनिक्रदत्) = खूब हिनहिनाता हुआ (आश्वः) = घोड़ा होता है, उसी प्रकार शक्ति के कारण शक्तिशाली वाणी को प्रकट करता हुआ मैं (भगेन सह) = ऐश्वर्य के साथ (आगमम्) = आ गया हूँ। इन शब्दों से पति बनने की कामनावाले युवक के लिए दो बातों की आवश्यकता स्पष्ट हो रही है।[क] एक तो वह शक्तिशाली हो और[ख] दूसरे, वह धन कमाने की योग्यतावाला हो। 'धन व शक्ति दोनों ही बातें गृहस्थ को सुन्दरता से निभाने के लिए आवश्यक हैं।
भावार्थ -
युवावस्था में परस्पर एक-दूसरे के चाहनेवालों का ही विवाह हो। पति जहाँ तारुण्य की शक्तिवाला हो, वहाँ धन कमाने की योग्यता भी रखता हो।
विशेष -
प्रस्तुत सूक्त में पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम के विषय का उल्लेख है। दीर्घजीवन के लिए इसका होना आवश्यक ही है। इस दीर्घजीवन के लिए और नीरोगता की सिद्धि के लिए कण्वों [A peculiar class of evil spirits-रोगकृमि] का संहार भी आवश्यक है। इन कण्वों का संहार करनेवाले 'काण्व' अगले सूक्त का ऋषि है।