अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
सूक्त - काण्वः
देवता - मही अथवा चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त
इन्द्र॑स्य॒ या म॒ही दृ॒षत्क्रिमे॒र्विश्व॑स्य॒ तर्ह॑णी। तया॑ पिनष्मि॒ सं क्रिमी॑न्दृ॒षदा॒ खल्वाँ॑ इव ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । या । म॒ही । दृ॒षत् । क्रिमे॑: । विश्व॑स्य । तर्ह॑णी । तया॑ । पि॒न॒ष्मि॒ । सम् । क्रिमी॑न् । दृ॒षदा॑ । खल्वा॑न्ऽइव ॥३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य या मही दृषत्क्रिमेर्विश्वस्य तर्हणी। तया पिनष्मि सं क्रिमीन्दृषदा खल्वाँ इव ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । या । मही । दृषत् । क्रिमे: । विश्वस्य । तर्हणी । तया । पिनष्मि । सम् । क्रिमीन् । दृषदा । खल्वान्ऽइव ॥३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
विषय - मही दृषत्
पदार्थ -
१. (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष को (या) = जो (मही) = महनीय (दुषत्) = शिला है, अर्थात् [मही-पृथिवी] पत्थर के समान दृढ़ यह शरीररूप पृथिवी है, यह (विश्वस्य क्रिमे:) = शरीर में प्रविष्ट हो जानेवाले कृमियों का (तर्हण)-नाश करनेवाली है। जब एक व्यक्ति जितेन्द्रिय बनता है तब उसका शरीर पत्थर के समान दृढ़ हो जाता है। इस शरीर में जो भी रोगकृमि प्रवेश करते हैं, वे इस जितेन्द्रिय की वीर्यशक्ति से कम्पित होकर नष्ट हो जाते हैं। २. (तया) = उस महनीय दृषत् से मैं (क्रिमीन्) = इन रोगकृमियों को ऐसे (संपिनष्मि) = पीस डालता हूँ, (इव) = जैसे (दृषदा) = पत्थर से (खल्वान्) = [चणकान् सा०] चनों को पीस डालते हैं।
भावार्थ -
जितेन्द्रिय पुरुष का शरीर एक महनीय दृषत् के समान होता है, जिससे रोगकृमि इसप्रकार पिस जाते हैं, जैसे पत्थर से चने।
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