अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
सूक्त - काण्वः
देवता - मही अथवा चन्द्रमाः
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - कृमिजम्भन सूक्त
अन्वा॑न्त्र्यं॒ शीर्ष॒ण्य॑१मथो॒ पार्ष्टे॑यं॒ क्रिमी॑न्। अ॑वस्क॒वं व्य॑ध्व॒रं क्रिमी॒न्वच॑सा जम्भयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ऽआन्त्र्यम् । शी॒र्ष॒ण्य॑म् । अथो॒ इति॑ । पार्ष्टे॑यम् । क्रिमी॑न् । अ॒व॒स्क॒वम्। वि॒ऽअ॒ध्व॒रम् । क्रिमी॑न् । वच॑सा । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ ॥३१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वान्त्र्यं शीर्षण्य१मथो पार्ष्टेयं क्रिमीन्। अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन्वचसा जम्भयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽआन्त्र्यम् । शीर्षण्यम् । अथो इति । पार्ष्टेयम् । क्रिमीन् । अवस्कवम्। विऽअध्वरम् । क्रिमीन् । वचसा । जम्भयामसि ॥३१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
विषय - विविध रोगकृमि
पदार्थ -
१. (अन्वान्त्रयम्) = क्रमशः आँतो में फैलते जानेवाले कृमियों को (शीर्षण्यम्) = सिर में विकार के कारणभूत कृमियों को (अथ उ) = और निश्चय से (पायम्) = [पृष्टिषु पावियवेषु भवम्] पसलियों में होनेवाले (क्रिमीन) = रोगकृमियों को (वचसा) = वचा ओषधि के प्रयोग से (जम्भयामसि) = हम नष्ट करते हैं। २. (अवस्कवम्) = [अव+स्कुञ् आप्नवणे] नीचे की ओर के स्वभावबाले-अन्दर और अन्दर प्रवेश करते चलने के स्वभाववाले तथा (व्यध्वरम्) = [वि+अध्य] विविध मागाँवाले, अनेक द्वार बनाकर गति करते हुए (क्रिमीन) = सब कृमियों को हम (वचसा जम्भयामसि) = वचा ओषधि के द्वारा नष्ट करते हैं।
भावार्थ -
'अन्वान्त्र्य, शीर्षण्य, पाप्टेंय, अवस्कव, व्यध्वर' आदि सब कृमियों को हम बचा ओषधि के द्वारा नष्ट करते हैं।
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