अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - ओषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
यदन्त॑रं॒ तद्बाह्यं॒ यद्बाह्यं॒ तदन्त॑रम्। क॒न्या॑नां वि॒श्वरू॑पाणां॒ मनो॑ गृभायौषधे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अन्त॑रम् । तत् । बाह्य॑म् । यत् । बाह्य॑म् । तत् । अन्त॑रम् । क॒न्या᳡नाम् । वि॒श्वऽरू॑पाणाम् । मन॑: । गृ॒भा॒य॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरं तद्बाह्यं यद्बाह्यं तदन्तरम्। कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गृभायौषधे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरम् । तत् । बाह्यम् । यत् । बाह्यम् । तत् । अन्तरम् । कन्यानाम् । विश्वऽरूपाणाम् । मन: । गृभाय । ओषधे ॥३०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
विषय - जो अन्दर वही बाहर [निश्छलता]
पदार्थ -
१. पति पत्नी के हृदय पर तभी काबू पा सकता है जब पत्नी को यह विश्वास हो जाए कि पति उससे किसी प्रकार का छिपाव नहीं रख रहे । मन्त्र में कहा है कि (ओषधे) = अपने दोषों का दहन करनेवाले पुरुष ! तू जीवन का यह सूत्र बना कि (यत् अन्तरम्) = जो अन्दर है (तत् बाहाम्) = वहीं बाहर हो, (यत् बाहाम्) = जो बाहर हो (तत् अन्तरम्) = वही अन्दर हो। तेरा अन्दर व बाहर एक हो-किसी प्रकार का छल-छिद्र व छिपाव न हो। २. ऐसा करने पर (विश्वरूपाणाम्) = भिन्न-भिन्न रूपोंवाली, अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव व रुचियोंवाली सभी (कन्यानाम्) = कन्याओं के (मनः गृभाय) = मन को तू ग्रहण करनेवाला हो। पत्नी का कैसा भी स्वभाव हो, परन्तु उसे यह विश्वास हो कि पति उससे किसी प्रकार का छिपाव नहीं रखते तो वह उनके प्रति अनन्य भाव से प्रेमवाली रहती है। पति के लिए इससे अधिक शान्ति देनेवाली और कोई बात नहीं हो सकती।
भावार्थ -
पति पत्नी से किसी प्रकार का छिपाव न रखकर उसके हृदय को जीत लेता है।
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