अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
इन्द्र॑ ए॒तां स॑सृजे वि॒द्धो अग्र॑ ऊ॒र्जां स्व॒धाम॒जरां॒ सा त॑ ए॒षा। तया॒ त्वं जी॑व श॒रदः॑ सु॒वर्चा॒ मा त॒ आ सु॒स्रोद्भि॒षज॑स्ते अक्रन् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ए॒ताम् । स॒सृ॒जे॒ । वि॒ध्द: । अग्रे॑ । ऊ॒र्जाम् । स्व॒धाम् । अ॒जरा॑म् । सा । ते॒ । ए॒षा । तया॑ । त्वम् । जी॒व॒ । श॒रद॑: । सु॒ऽवर्चा॑: । मा । ते॒ । आ । सु॒स्रो॒त् । भि॒षज॑: । ते॒ । अ॒क्र॒न् ॥२९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जां स्वधामजरां सा त एषा। तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद्भिषजस्ते अक्रन् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । एताम् । ससृजे । विध्द: । अग्रे । ऊर्जाम् । स्वधाम् । अजराम् । सा । ते । एषा । तया । त्वम् । जीव । शरद: । सुऽवर्चा: । मा । ते । आ । सुस्रोत् । भिषज: । ते । अक्रन् ॥२९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 7
विषय - मन्थ का महत्व इन्द्र
पदार्थ -
१. (विद्धः इन्द्रः) = [विधेम-परिचरेम-नि० ३.५] उपासित हुए-हुए इन्द्र ने (एताम्) = इस मन्थरूप पेय द्रव्य को (ससृजे) = उत्पन्न किया है। (अग्ने ऊर्जाम्) = यह सर्वाधिक बल व प्राणशक्ति को देनेवाला है, (अजराम्) = यह जीर्ण न होने देनेवाला है, (सा एषा) = वह यह पेय द्रव्य (ते) = तेरे लिए है। (तया) = उससे (त्वम्) = तू (शरदः) = वर्षों [सौ वर्षों तक] जीव-जीनेवाला हो। (सुवर्चा:) = तू उत्तम वर्चस्वाला बन। २. (ते) = तरे शरीर से (मा आसुत्रोत्) = शक्ति का प्रच्याव [विनाश] न हो। (भिषज:) = वैद्यों ने (ते) = तेरे लिए (अकन्) = इस मन्थ [तक्र] को औषध के रूप में किया है। यह तेरे लिए औषध बन गया है।
भावार्थ -
प्रभु के उपासक प्रभु से दी गई इस छाछ को पीते हैं। यह उनके बल को स्थिर रखती है, शरीर का धरण करती है और उन्हें जीर्ण नहीं होने देती।
विशेष -
यह सूक्त दीर्घायुष्य के साधनों का उल्लेख करता है[क] प्रथम उपाय है पार्थिव ओषधियों के रसों का ही प्रयोग हो, [ख] समाति पर मन्थ के प्रयोग का उल्लेख है, [ग] 'पार्थिव ओषिधियों का प्रयोग करें, छाछ पीएँ ' इससे दीर्घ जीवन होगा। इस दीर्घ जीवन के लिए पति-पत्नी का परस्पर प्रेम अत्यावश्यक है। इसी बात का उल्लेख अगले सूक्त में करते हैं। ऐसे पति-पत्नी ही उत्तम सन्तान को प्राप्त करते हैं। इस उत्तम सन्तानवाला 'प्रजापति' ही इस सूक्त का ऋषि है।