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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - द्यावापृथिवी, विश्वे देवाः, मरुद्गणः, आपो देवाः छन्दः - पराबृहती निचृत्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    इन्द्रे॑ण द॒त्तो वरु॑णेन शि॒ष्टो म॒रुद्भि॑रु॒ग्रः प्रहि॑तो नो॒ आग॑न्। ए॒ष वां॑ द्यावापृथिवी उ॒पस्थे॒ मा क्षु॑ध॒न्मा तृ॑षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । द॒त्त: । वरु॑णेन । शि॒ष्ट: । म॒रुत्ऽभि॑: । उ॒ग्र: । प्रऽहि॑त: । न॒: । आ । अ॒ग॒न् । ए॒ष: । वा॒म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । उ॒पऽस्थे॑ । मा । क्षु॒ध॒त् । मा । तृ॒ष॒त् ॥२९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टो मरुद्भिरुग्रः प्रहितो नो आगन्। एष वां द्यावापृथिवी उपस्थे मा क्षुधन्मा तृषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण । दत्त: । वरुणेन । शिष्ट: । मरुत्ऽभि: । उग्र: । प्रऽहित: । न: । आ । अगन् । एष: । वाम् । द्यावापृथिवी इति । उपऽस्थे । मा । क्षुधत् । मा । तृषत् ॥२९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. यह सन्तान (इन्द्रेण दत्तः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से दिया गया है। प्रभु की कृपा से सब सन्तान प्राप्त हुआ करते हैं। २. (वरुणेन शिष्टः) = [आचार्यो मृत्यु ओषधयः पयः] वरुण के द्वारा यह अनुशासन को प्राप्त कराया गया है। आचार्य ने इसे उत्तम अनुशासन में रखकर ज्ञान प्राप्त कराया है। ३. (मद्भिः उन:) = प्राणों से यह तेजस्वी बना है। इसप्रकार प्रहित:-[हि वृद्धौ, promote] वृद्धि को प्राप्त करता हुआ (वाम् उपस्थे) = आपकी गोद में (मा क्षुधत्) = मत भूखा रहे मा तृषत्-और न ही प्यासा रहे। यह ठीक खान-पान प्राप्त करता हुआ दीर्घजीवी हो।

    भावार्थ -

    [क] 'सन्तानों को हम प्रभु से दिया गया समझें', ऐसा होने पर हम उनके पालन को "प्रभु का कार्य करना समझेंगे', [ख] उत्तम आचार्यों से उनका शिक्षण हो, [ग] प्राणसाधना की प्रवृत्ति इनमें पैदा की जाए, [घ] इनका खान-पान ठीक हो, ऐसा होने पर ये अवश्य दीर्घजीवी बनेंगे।

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