अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - अश्विनीकुमारौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
शि॒वाभि॑ष्टे॒ हृद॑यं तर्पयाम्यनमी॒वो मो॑दिषीष्ठाः सु॒वर्चाः॑। स॑वा॒सिनौ॑ पिबतां म॒न्थमे॒तम॒श्विनो॑ रू॒पं प॑रि॒धाय॑ मा॒याम् ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वाभि॑: । ते॒ । हृद॑यम् । त॒र्प॒या॒मि॒ । अ॒न॒मी॒व: । मो॒दि॒षी॒ष्ठा॒: । सु॒ऽवर्चा॑: । स॒ऽवा॒सिनौ॑ । पि॒ब॒ता॒म् । म॒न्थम् । ए॒तम् । अ॒श्विनो॑: । रू॒पम् । प॒रि॒ऽधाय॑ । मा॒याम् ॥२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवाभिष्टे हृदयं तर्पयाम्यनमीवो मोदिषीष्ठाः सुवर्चाः। सवासिनौ पिबतां मन्थमेतमश्विनो रूपं परिधाय मायाम् ॥
स्वर रहित पद पाठशिवाभि: । ते । हृदयम् । तर्पयामि । अनमीव: । मोदिषीष्ठा: । सुऽवर्चा: । सऽवासिनौ । पिबताम् । मन्थम् । एतम् । अश्विनो: । रूपम् । परिऽधाय । मायाम् ॥२९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
विषय - जल व तक्र का प्रयोग
पदार्थ -
१. गतमन्त्र की समाप्ति पर 'आप:' शब्द आया है। उन्हीं का संकेत करते हुए कहते हैं कि (शिवाभि:) = इन कल्याण करनेवाले जलों से (ते) = तेरे (हृदयम्) = हदय को (तर्पयामि) = तृप्त करता हूँ। ये तेरे लिए (हृद्य) = हृदय को शान्ति देनेवाले हों। इनके ठीक प्रयोग से (अनमीव:) = नीरोग होता हुआ तू (सवर्चा:) = उत्तम वर्चस्व तेजवाला बनकर (मोदिषीष्ठा:) = आनन्द का अनुभव कर । जल का समुचित प्रयोग वस्तुत: तृप्ति देनेवाला है, नीरोगता का साधन है, शक्तिशाली बनाता है और इसप्रकार आनन्दित करता है। २. घर में पति-पत्नी के लिए कहते हैं कि तुम दोनों सवासिनौ घर में मिलकर, प्रेम से रहनेवाले होकर (अश्विनो: रूपम्) = द्यावापृथिवी के रूप को (परिधाय) = धारण करके[ इमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ- श०४.१.५.१६, पति धुलोक के समान है तो पत्नी पृथिवीलोक के] (मायाम् परिधाय) = प्रज्ञा को प्राप्त करे (एतम्) = इस (मन्थम्) = मन्थन से उत्पन्न तक्र [छाछ] को पीओ। इस तक्र के प्रयोग से प्रायः सब रोग दग्ध हो जाते हैं [न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगा:]। शरीर में आँतों के अन्तिम प्रदेश में कुछ ऐसे कृमि हो जाते है जो इस तक से ही समाप्त होते हैं।
भावार्थ -
जल व तक्र के प्रयोग से पति-पत्नी स्वस्थ बनते हैं। द्यावापृथिवी के समान मस्तिष्क में प्रकाशमय व शरीर में दृढ़ होते हैं।
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