अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
सूक्त - काण्वः
देवता - आदित्यगणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
ह॒तो राजा॒ क्रिमी॑णामु॒तैषां॑ स्थ॒पति॑र्ह॒तः। ह॒तो ह॒तमा॑ता॒ क्रिमि॑र्ह॒तभ्रा॑ता ह॒तस्व॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठह॒त: । राजा॑ । क्रिमी॑णाम् । उ॒त । ए॒षा॒म् । स्थ॒पति॑: । ह॒त: । ह॒त: । ह॒तऽमा॑ता । क्रिमि॑: । ह॒तऽभ्रा॑ता । ह॒तऽस्व॑सा ॥३२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः। हतो हतमाता क्रिमिर्हतभ्राता हतस्वसा ॥
स्वर रहित पद पाठहत: । राजा । क्रिमीणाम् । उत । एषाम् । स्थपति: । हत: । हत: । हतऽमाता । क्रिमि: । हतऽभ्राता । हतऽस्वसा ॥३२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
विषय - सराष्ट्र 'कमि' विनाश
पदार्थ -
१. (क्रिमीणां राजा हत:) ृ गतमन्त्र में वर्णित कृमियों का राजा अगस्त्य के द्वारा विचारपूर्वक किये गये औषधप्रयोग से [मन्त्रौषधि प्रयोग से] मारा गया है, (उत) ृ और (एषाम्) ृ इन कृमियों का (स्थपति:) ृ स्थान का रक्षक अथवा सचिव (हत:) ृ मारा गया है। २. (इतमाता) ृ जिसकी माता का विनाश कर दिया गया है, (हतभ्राता:) ृ जिसके भाई को मार दिया गया है। (उत स्वसा) = जिसकी बहिन को भी नष्ट कर दिया गया है, ऐसा यह (क्रिमि:) = कृमि (हत:) = हिंसित हुआ है। संक्षेप में अपने सारे परिवार व राष्ट्रसहित यह कृमि समाप्त हो गया है।
भावार्थ -
ज्ञानपूर्वक ओषधिप्रयोग से रोगकृमियों का मूलोच्छेद कर दिया जाता है।
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