अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
सूक्त - काण्वः
देवता - आदित्यगणः
छन्दः - त्रिपाद्भुरिग्गायत्री
सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त
उ॒द्यन्ना॑दि॒त्यः क्रिमी॑न्हन्तु नि॒म्रोच॑न्हन्तु र॒श्मिभिः॑। ये अ॒न्तः क्रिम॑यो॒ गवि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽयन् । आ॒दि॒त्य: । क्रिमी॑न् । ह॒न्तु॒ । नि॒ऽम्रोच॑न् । ह॒न्तु॒ । र॒श्मिऽभि॑: । ये । अ॒न्त: । क्रिम॑य: । गवि॑ ॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्यन्नादित्यः क्रिमीन्हन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः। ये अन्तः क्रिमयो गवि ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽयन् । आदित्य: । क्रिमीन् । हन्तु । निऽम्रोचन् । हन्तु । रश्मिऽभि: । ये । अन्त: । क्रिमय: । गवि ॥३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
विषय - उदय व अस्त होता हुआ सूर्य
पदार्थ -
१. (उद्यन्) = उदय होता हुआ (आदित्यः) = सूर्य (क्रिमीन् हन्तु) = रोगकृमियों को नष्ट करे। उदय होते हुए सूर्य की किरणों में इसप्रकार की शक्ति होती है कि हमारे शरीरों में स्थित रोगकृमि नष्ट हो जाते हैं। २. इसीप्रकार (निम्रोचन्) = अस्त होता हुआ सूर्य भी (रश्मिभिः) = अपनी किरणों से उन रोगकृमियों को (हन्तु) = नष्ट करे (ये) = जो (क्रिमय:) = कृमि (गवि अन्त:) = गौ के शरीर में स्थित हैं। सूर्य-किरणों में विचरण करनेवाली गौएँ निर्दोष दुग्धवाली होती हैं।
भावार्थ -
उदय व अस्त होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से रोगकृमियों को नष्ट करता है।
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