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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 134

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 4
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - विराट्साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒क्स वै॑ पृ॒थु ली॑यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । स: । वै॑ । पृ॒थु । ली॑यते ॥१३४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेत्थ प्रागपागुदगधराक्स वै पृथु लीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । स: । वै । पृथु । लीयते ॥१३४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाग् उदग् अधराग्)-पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण में सब ओर वे प्रभु हैं, २. ऐसा अनुभव करनेवाला (स:) = वह उपासक (वै) = निश्चय से (पृथु) = [प्रथ-विस्तारे] उस सर्वव्यापक प्रभु की भक्ति में (विलीयते) = विलीन होने के लिए यत्नशील होता है।

    भावार्थ - हम प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करें और उसकी उपासना में लीन होने के लिए यत्नशील हों।

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