अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 2
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॑ग्व॒त्साः पुरु॑षन्त आसते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । व॒त्सा: । पुरु॑षन्त । आसते ॥१३४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधराग्वत्साः पुरुषन्त आसते ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । वत्सा: । पुरुषन्त । आसते ॥१३४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 2
विषय - पुरुषन्त
पदार्थ -
१. (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाग् उदग् अधराग्) = पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण में सर्वत्र.वे प्रभु विद्यमान हैं। २. इस प्रभु के (वत्सा:) = प्रिय पुत्र (पुरुषन्तः) = [पुरुष इव आचरन्तः] एवं पुरुष की भाँति आचरण करते हुए-मानवोचित व्यवहार करते हुए-छल-छिद्र से दूर होते हुए आसते-ठहरते हैं।
भावार्थ - प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण करते हुए हम मानवोचित व्यवहार करें और प्रभु के प्रिय बनें।
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