अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 5
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गास्ते॑ लाहणि॒ लीशा॑थी ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । आष्टे॑ । लाहणि॒ । लीशा॑थी ॥१३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधरागास्ते लाहणि लीशाथी ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । आष्टे । लाहणि । लीशाथी ॥१३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 5
विषय - 'सर्वत्र व सर्वविजेता' प्रभु
पदार्थ -
१. (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाग् उदग् अधराग्) = पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण में सर्वत्र प्रभु व्याप्त हैं। २. ऐसा सोचनेवाले पुरुष की बुद्धि (आष्टे) = उस सर्वव्यापक [अश् व्याप्ती] (लाहणि) = [लाभ-conquest, apprehansion] सर्व-विजेता, सर्वज्ञ प्रभु में (लीशाथी) = [लिश गती] गतिवाली होती है। यह पुरुष सदा प्रभु का ही चिन्तन करता है। इसके सब व्यापार प्रभु चिन्तनपूर्वक होते हैं।
भावार्थ - प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण करते हुए हम बुद्धि को प्रभु के चिन्तन में प्रवृत्त करें। सब विजयों को उस प्रभु से होता हुआ जानें।
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