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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 134

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 3
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒क्स्थाली॑पाको॒ वि ली॑यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । स्थाली॑पा॒क: । वि । ली॑यते ॥१३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेत्थ प्रागपागुदगधराक्स्थालीपाको वि लीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । स्थालीपाक: । वि । लीयते ॥१३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाम् उदग् अधराग्) = पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण में वे प्रभु सर्वत्र विद्यमान हैं। ३. ऐसा अनुभव होने पर (स्थालीपाक:) = कुण्ड में [देगची में] पकाते रहने की क्रिया (विलीयते) = विलीन हो जाती है-नष्ट हो जाती है। यह व्यक्ति हर समय खाता पीता ही नहीं रहता। खान-पान में ही मजा लेने से ऊपर उठकर यह अध्यात्म उन्नति की ओर अग्नसर होता है?

    भावार्थ - हम प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करें और हर समय पशुओं की तरह चरते ही न रहें। अध्यात्म-उन्नति में प्रवृत्त हों।

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