Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 48

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
    सूक्त - सार्पराज्ञी देवता - गौः, सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४८

    अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्य॑ख्यन्महि॒षः स्व: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त: । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒पा॒न॒त: ॥ वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒ष: । स्व॑: ॥४८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तश्चरति रोचना अस्य प्राणादपानतः। व्यख्यन्महिषः स्व: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: ॥ वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥४८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार कुण्डलिनी का जागरण होने पर (अस्य अन्त:) = इस साधक के हृदय में (रोचना चरति) = प्रभु की दीति गतिवाली होती है। इसके हृदयदेश में प्रभु की दीप्ति का प्रकाश होता है। यह रोचना (प्राणात्) = इसके अन्दर प्राणशक्ति का संचार करती है और (अपानत:) = अपान के द्वारा शोधन का कार्य करती है। २. इसप्रकार प्राण व अपान के कार्य के ठीक से होने पर यह (महिष:) = प्रभु का पुजारी (स्व:) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को (व्यख्यत्) = विशेषरूप से देखता है। इस पुजारी का हृदय प्रकाश से दीप्त हो उठता है।

    भावार्थ - साधना से साधक का हृदय प्रभु की दीप्ति से दीस हो उठता है। उसकी प्राणापान शक्ति ठीक से कार्य करती हुई इसे प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top