अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 6
त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शिश्रियत्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिं॒शत् । धाम॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ । वाक् । प॒त॒ङ्ग: । अ॒शि॒श्रि॒य॒त् ॥ प्रति॑ । वस्तो॑: । अह॑: । द्युऽभि॑: ॥४८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिंशद्धामा वि राजति वाक्पतङ्गो अशिश्रियत्। प्रति वस्तोरहर्द्युभिः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिंशत् । धाम । वि । राजति । वाक् । पतङ्ग: । अशिश्रियत् ॥ प्रति । वस्तो: । अह: । द्युऽभि: ॥४८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 6
विषय - तीसों धाम
पदार्थ -
१. यह साधक (प्रिंशत् धाम) = तीसों स्थानों में (विराजति) = चमकता है। दिन की तीसों घड़ियों में वा महीने के तीसों दिनों में दीप्तिवाला होता है। इसकी (वाक्) = वाणी (पतङ्गः) = उस सूर्यसम ज्योतिवाले ब्रह्म को (अशिश्रियत्) = सेवित करती है, अर्थात् यह वाणी से प्रभु का ही गुणगान करता है। २. यह साधक (प्रतिवस्तो:) = प्रतिदिन (अहः) = [एव] निश्चय से (घुभि:) = ज्ञान-ज्योतियों से उपलक्षित होता है। इसका ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है।
भावार्थ - हम सदा प्रभु के नाम का जप करें और अपने को ज्ञान-ज्योति से दीस करें। अगले सूक्त में भी ऋषि पूर्ववत् ही है -
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