अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्व: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒यम् । गौ: । पृश्नि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒र: ॥ पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्व॑: ॥४८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्व: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अयम् । गौ: । पृश्नि: । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुर: ॥ पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व: ॥४८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
विषय - कुण्डलिनी का जागरण
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह (गौ:) = जागरित होने पर मेरुदण्ड में ऊपर गति करनेवाली [गच्छति] कुण्डलिनी (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टो भासाम्-नि० २.१४] ज्योति के साथ सम्पर्कबाली होती है। यह प्राणायाम की उष्णता से (अक्रमीत्) = कुण्डल को तोड़कर आगे गति करती है। २. यह (पुरः) = आगे और आगे बढ़ती हुई (मातरम्) = वेदमाता को [स्तुता मया वरदा वेदमाता] (असदत्) = प्राप्त करती है। इसके जागरण व ऊर्ध्वगत होने पर 'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' ऋत का पोषण करनेवाली प्रज्ञा उत्पन्न होती है। यह प्रज्ञा वेदज्ञान का प्रकाश करती है। ३. (च) = और इस वेदज्ञान का प्रकाश होने पर यह (स्व:) = उस देदीप्यमान (पितरम्) = प्रभुरूप पिता की ओर (प्रयन्त्) -=जानेवाली होती है, अर्थात् यह योगी अन्ततः प्रभु का दर्शन करनेवाला होता है।
भावार्थ - कुण्डलिनी के जागरण से बुद्धि का प्रकाश होता है। वेदार्थ का स्पष्टीकरण होता है और प्रभु की प्राप्ति होती है।
इस भाष्य को एडिट करें