अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
यच्छ॒क्रा वाच॒मारु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं सिषासथः। सं दे॒वा अ॑मद॒न्वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । श॒क्रा: । वाच॒म् । आरु॑हन् । अ॒न्तरि॑क्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । दे॒वा: । अ॑म॒दन् । वृषा॑ ॥४९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्छक्रा वाचमारुहन्नन्तरिक्षं सिषासथः। सं देवा अमदन्वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । शक्रा: । वाचम् । आरुहन् । अन्तरिक्षम् । सिषासथ: ॥ सम् । देवा: । अमदन् । वृषा ॥४९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
विषय - शक्र+देव
पदार्थ -
१. (यत्) = जब अन्तरिक्ष (सिषासथ:) = हृदयान्तरिक्ष का सेवन करने की इच्छावाले, अर्थात् हमारे हृदयों में निवास करनेवाले प्रभु (वाचम्) = वाणी को (शक्काः) = शक्तिशाली पुरुष (आरुहन्) = आरुढ़ करते हैं, अर्थात् जब हृदयास्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं अथवा वेदवाणी का अध्ययन करते हैं तब (देवा:) = ये देववृत्ति के पुरुष (वृषा:) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु के साथ सममदन् [सम् अमदन्] आनन्द का अनुभव करते हैं। २. प्रभु सर्वव्यापक हैं, परन्तु भक्तों के हृदय प्रभु के सर्वोत्तम निवास स्थान है। सर्वव्यापक होने पर भी प्रभु का दर्शन हृदय में ही होता है। हृदय ही वह स्थान है, जहाँ आत्मा व परमात्मा–ज्ञाता व ज्ञेय दोनों की स्थिति है। इस हृदय में स्थित प्रभु की वाणी को हम सुनते हैं तो सब वासनाओं से ऊपर उठकर शक्तिशाली बनते हुए हम देववृत्ति के बन पाते है।
भावार्थ - हम हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनें। यही मार्ग है जिससे हम 'शक्र व देव' बनेंगे।
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