अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्टा॒योरु॑वाचो॒ अधृ॑ष्णुहि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑द॒र्दिवि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क्र: । वा॒च॒म् । अधृ॑ष्टा॒य । उरु॑वा॒च: । अधृ॑ष्णुहि ॥ मंहि॑ष्ठ॒: । आ । म॑द॒र्दिवि॑ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शक्रो वाचमधृष्टायोरुवाचो अधृष्णुहि। मंहिष्ठ आ मदर्दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठशक्र: । वाचम् । अधृष्टाय । उरुवाच: । अधृष्णुहि ॥ मंहिष्ठ: । आ । मदर्दिवि ॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
विषय - मंहिष्ठ
पदार्थ -
१. (शक्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (वाचम्) = अपनी वाणी को (अधृष्टाय) = वासनाओं से पराजित न होनेवाले के लिए देते हैं। प्रभु की वाणी को वही सुन पाता है जोकि काम-क्रोध आदि वासनाओं से अभिभूत नहीं होता। २. हे उपासक! तू भी (उरुवाच:) = प्रभु की विशाल, जान परिपूर्ण इन वेदवाणियों का (अधष्णुहि) = धर्षण करनेवाला न हो, अर्थात् इन वाणियों को अनसुना न कर दे। जहाँ हदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनने का प्रयत्न करे वहाँ वेदवाणियों का भी तू अध्ययन कर-इसमें प्रमाद न कर। ३. (मंहिष्ठ: दातृतम) = उदार-दानशील बनता हुआ तू (दिवि) = ज्ञान-ज्योति में-प्रकाश में (आमदः) = हर्ष अनुभव करनेवाला हो।
भावार्थ - हम प्रभु की वाणी को सुनते हुए दानशील बनें और ज्ञान-ज्योति में ही आनन्द लेने का प्रयत्न करें।
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