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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
    सूक्त - खिलः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४९

    श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्णुहि॒ धाम॑धर्म॒न्वि रा॑जति। विम॑दन्ब॒र्हिरास॑रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒क्र: । वाच॒म् । अधृ॑ष्णुहि । धाम॑ । धर्म॑न् । वि । रा॑जति ॥ विम॑दन् । ब॒र्हि: । आ॒सर॑न् ॥४९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शक्रो वाचमधृष्णुहि धामधर्मन्वि राजति। विमदन्बर्हिरासरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शक्र: । वाचम् । अधृष्णुहि । धाम । धर्मन् । वि । राजति ॥ विमदन् । बर्हि: । आसरन् ॥४९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे जीव! (शक्रः) = शक्तिशाली बनता हुआ तू (वाचम्) = हदयस्थ प्रभु की वाणी का (अधष्णुहि) = धर्षण करनेवाला न हो। इस वाणी को तू सदा अप्रमत्त होकर अपनानेवाला हो। २. इस वाणी को सुननेवाला व्यक्ति (विमदन) = विशिष्ट आनन्द को अनुभव करता हुआ (बर्हिः आसरन्) = हदयान्तरिक्ष में गति करता हुआ (धामधर्मन्) = तेज व धारणात्मक कर्मों में (विराजति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है।

    भावार्थ - हम प्रभु की वाणी को सुनने में कभी प्रमाद न करें। यह प्रभुवाणी-श्रवण हमें तेजस्वी बनाएगा, धर्मप्रवण करेगा, आनन्दमय जीवनवाला बनाएगा तथा हमें हदयान्तरिक्ष की ओर गतिवाला, अर्थात् आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाला बनाएगा।

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