अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं॒ वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः। अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒: । द॒स्मम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । वसो॑: । म॒न्दा॒नम् । अन्ध॑स: ॥ अ॒भि । व॒त्सम् । न । स्वस॑रेषु । धे॒नव॑: । इन्द्र॑म् । गी॒ऽभि: । न॒वा॒म॒हे॒ ॥४९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः। अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । व: । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसो: । मन्दानम् । अन्धस: ॥ अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनव: । इन्द्रम् । गीऽभि: । नवामहे ॥४९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
विषय - 'दस्म' प्रभु
पदार्थ -
१. (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीभिः) = स्तुतिवाणियों से (नवामहे) = स्तुत करते हैं, जोकि (वः दस्मम्) = तुम्हारे दुःखों के दूर करनेवाले हैं, (ऋतीषहम्) = आर्ति [पीड़ा] के नाशक हैं तथा (वसो: अन्धसः मन्दानम्) = निवास के कारणभूत सोम के द्वारा आनन्दित करनेवाले हैं। २. (स्वसरेषु) = [स्व: आदित्यः एतान् सारयति] दिनों में-दिन के निकलने पर (न:) = जैसे (धेनवः) = गौवें (वत्सम् अभि) = बछड़े का लक्ष्य करके हम्भारव करती हैं, उसी प्रकार हम प्रभु का स्तवन करते है।
भावार्थ - हम प्रतिदिन प्रातः प्रभु का स्मरण करें। यह स्मरण ही हमारे सब कष्टों को दूर करेगा और सोम-रक्षण द्वारा हमारे आनन्द का साधक होगा।
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