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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 49

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 7
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-४९

    येना॑ समु॒द्रमसृ॑जो म॒हीर॒पस्तदि॑न्द्र॒ वृष्णि॑ ते॒ शवः॑। स॒द्यः सो अ॑स्य महि॒मा न सं॒नशे॒ यं क्षो॒णीर॑नुचक्र॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । स॒मु॒द्रम् । असृ॑ज: । म॒ही: । अ॒प: । तत् । इ॒न्द्र॒ । वृष्णि॑ । ते॒ । शव॑: ॥ स॒द्य: । स: । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । न । स॒म्ऽनशे॑ । यम् । क्षो॒णी: । अ॒नु॒ऽच॒क्र॒दे ॥४९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना समुद्रमसृजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शवः। सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । समुद्रम् । असृज: । मही: । अप: । तत् । इन्द्र । वृष्णि । ते । शव: ॥ सद्य: । स: । अस्य । महिमा । न । सम्ऽनशे । यम् । क्षोणी: । अनुऽचक्रदे ॥४९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १.हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (ते शवः तत्) = आपका बल वह है (येन) = जिससे (समुद्रम) = समुद्र को (असृज:) = आप उत्पन्न करते हैं। (मही:) = पृथिवियों को तथा (अप:) = जलों को उत्पन्न करते हैं। आपका यह बल इन सब लोक-लोकान्तरों का निर्माण करता हुआ (वृष्णि) = सुखों का वर्षण करनेवाला है। २. (अस्य) = इन प्रभु की (सः महिमा) = वह महिमा (सद्य:) = शीघ्र न (सन्नशे) = हमसे प्राप्त करने योग्य नहीं होती [नश् to reach], (यम्) = जिस महिमा को (क्षोणी:) = ये पृथिवियाँ (अनुचक्रदे) = ऊँचे-ऊँचे कह रही हैं। 'यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः 'ये हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र व पृथिवी उस प्रभु की महिमा को कह रही हैं।

    भावार्थ - प्रभु अपनी शक्ति की महिमा से समुद्र आदि की सृष्टि करते हैं। ये सब लोक हमारे लिए सुख का वर्षण करनेवाले हैं। प्रभु-स्तवन करता हुआ प्रभु की ओर चलनेवाला यह 'मेध्यातिथि' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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