अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑। सं गृ॑भाय पु॒रु श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठमदे॑ऽमदे । हि । न॒: । द॒दि: । यू॒था । गवा॑म् । ऋ॒जु॒ऽक्रतु॑: ॥ सम् । गृ॒भा॒य॒ । पु॒रु । श॒ता । उ॒भ॒या॒ह॒स्त्या । वसु॑ । शि॒शी॒हि । रा॒य: । आ । भ॒र॒ ॥५६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मदेमदे हि नो ददिर्यूथा गवामृजुक्रतुः। सं गृभाय पुरु शतोभयाहस्त्या वसु शिशीहि राय आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठमदेऽमदे । हि । न: । ददि: । यूथा । गवाम् । ऋजुऽक्रतु: ॥ सम् । गृभाय । पुरु । शता । उभयाहस्त्या । वसु । शिशीहि । राय: । आ । भर ॥५६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
विषय - उभया हस्त्या वसु आभर
पदार्थ -
१. (ऋजुक्रतुः) = ऋजुता से सब कर्मों को करनेवाले ये प्रभु (मदे मदे) = उल्लास के जनक सोम का रक्षण होने पर (हि) = निश्चय से (न:) = हमारे लिए गर्वा यूथा इन्द्रियों के समूहों को (ददिः) = देनेवाले होते हैं। २. हे प्रभो! आप (उभया हस्त्या) = दोनों हाथों से (पुरूशता) = बहुत सैकड़ों-अनेक वसु धनों को संगभाय ग्रहण कीजिए। (शिशीहि) = हमारी बुद्धियों को तीन बनाइए और (रायः आभर) = हमारे लिए ऐश्वर्यों को प्राप्त कराइए।
भावार्थ - प्रभु हमें उत्तम इन्द्रियों दें। धनों को प्राप्त कराएँ। धनों का सद्विनियोग करते हुए हम तीक्ष्ण बुद्धि बनें।
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