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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-५६

    ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॑ विश्वं पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्। अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ते । ते॒ । इ॒न्द्र॒: । ज॒न्तव॑: । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒ति॒ । वार्य॑म् ॥ अ॒न्त: । हि । ख्य: । जना॑नाम् । अ॒र्य: । वेद॑: । अदा॑शुषाम् । तेषा॑म् । न॒: । वेद॑: । आ । भ॒र॒ ।५६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एते त इन्द्र जन्तवो विश्वं पुष्यन्ति वार्यम्। अन्तर्हि ख्यो जनानामर्यो वेदो अदाशुषां तेषां नो वेद आ भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एते । ते । इन्द्र: । जन्तव: । विश्वम् । पुष्यति । वार्यम् ॥ अन्त: । हि । ख्य: । जनानाम् । अर्य: । वेद: । अदाशुषाम् । तेषाम् । न: । वेद: । आ । भर ।५६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (एते जन्तवः) = ये सब प्राणधारी प्राणी (ते) = आपके हैं। आपके होते हुए ये (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय धन को (पुष्यन्ति) = प्राप्त करते हैं। २. आप (हि) = निश्चय से (जनानाम्) = सब लोगों के (अन्त:) = अन्दर होते हुए (ख्य:) = उनके सब आन्तरभावों को देखते हैं। (अर्य:) = आप ही स्वामी हैं। (अदाशुषाम्) = अदानशीलों-कृपणों के (वेदः) = धन को भी आप देखते हैं। (तेषां वेदः) = उनके धन को भी (न: आभर) = हमारे लिए प्राप्त कराइए। हम इस धन का दान करते हुए प्राजापत्ययज्ञ में अपनी आहुति देनेवाले बनें।

    भावार्थ - प्रभु ही सब वरणीय धनों के देनेवाले हैं। प्रभु अन्तरस्थित होते हुए हमारे सब भावों को जानते हैं। आप कृपणों के धनों को दाश्वान् पुरुषों में प्राप्त करानेवाले हैं। दान की वृत्तिवाले बनकर हम सदा 'मधुच्छन्दा' बनें-मधुर इच्छाओंवाले। यह 'मधुच्छन्दा' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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