अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
सु॑रूपकृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॑हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒रू॒प॒ऽकृ॒त्नुम् । ऊ॒तये॑ । सु॒दुघा॑म्ऽइव । गो॒ऽदुहे॑ ॥ जु॒हू॒मसि॑ । द्यवि॑ऽद्यवि॑॥५७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि ॥
स्वर रहित पद पाठसुरूपऽकृत्नुम् । ऊतये । सुदुघाम्ऽइव । गोऽदुहे ॥ जुहूमसि । द्यविऽद्यवि॥५७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
विषय - 'सरूपकृत्नु' प्रभु
पदार्थ -
१. हम अपने (ऊतये) = रक्षण के लिए उस प्रभु को (द्यवि द्यवि) = प्रतिदिन (जुहमसि) = पुकारते हैं, जो प्रभु (सरूपकृत्नुम्) = उत्तम रूप को करने में कुशल हैं। प्रभु हमें उत्तम रूप प्राप्त कराते हैं। २. इसी प्रकार हम इस 'सुरूपकृत्लु' प्रभु को पुकारते हैं, (इव) = जैसेकि (गोदुहे) = एक गोधुक् के लिए (सुदुघाम्) = सुखसंदोह्य गौ पुकारा जाता है। जैसे एक ग्वाले की यही कामना होती है. कि मुझे सुखसंदोह्य गौ प्राप्त हो, इसी प्रकार हमारी प्रार्थना का स्वरूप यही हो कि हमें सरूपकृत्नु प्रभु प्राप्त हों।
भावार्थ - हम अपने रक्षण के लिए प्रतिदिन प्रभु का आराधन करें। प्रभु हमें उत्कृष्ट जीवनवाला बनाते हुए 'सुरूप' प्रास कराएँगे।
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