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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 57

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५७

    उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद्रे॒वतो॒ मदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । न॒: । सव॑ना । आ । ग॒हि॒ । सोम॑स्य । सोम॒ऽपा॒: । पि॒ब॒ ॥ गो॒ऽदा: । इत् । रे॒वत॑: । मद॑: ॥५७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब। गोदा इद्रेवतो मदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । न: । सवना । आ । गहि । सोमस्य । सोमऽपा: । पिब ॥ गोऽदा: । इत् । रेवत: । मद: ॥५७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! (नः सवना उप आगहि) = हमारे यज्ञों में आप समीपता से प्राप्त होइए। आपने ही तो इन यज्ञों को पूर्ण करना है। (सोमपा:) = सोम का रक्षण करनेवाले प्रभो! आप (सोमस्य पिब) = सोम का पान कीजिए। आप ही वासना-विनाश द्वारा हमारे जीवन में सोम का रक्षण करेंगे। २. (रेवत:) = एक धनी पुरुष का (मदः) = वास्तविक हर्ष (इत्) = निश्चय से (गोदा:) = गौओं को देनेवाला है। यज्ञमय जीवनवाला धनी पुरुष निश्चय से दानशील होता है। वस्तुतः यह दानशीलता ही उसके हर्ष का कारण बनती है।

    भावार्थ - हम यज्ञों को करानेवाले हों, सोम का रक्षण करें और सम्पन्न होकर दानशील बनें। देने में हम आनन्द का अनुभव करें।

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