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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 57

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 57/ मन्त्र 14
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५७

    व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । घ॒ । त्वा॒ । सु॒तऽव॑न्त: । आप॑: । न । वृ॒क्तऽब॑र्ह‍िष: ॥ प॒वित्र॑स्य । प्र॒ऽस्रव॑णेषु । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । परि॑ । स्तो॒तार॑: । आ॒स॒ते॒ ॥५७.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः। पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्त: । आप: । न । वृक्तऽबर्ह‍िष: ॥ पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतार: । आसते ॥५७.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 57; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके मानव हित में तत्पर 'न-मेध' अगले सूक्त के प्रथम दो मन्त्रों का ऋषि है। इसी उद्देश्य से स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान करनेवाला 'जमदग्नि' [जमत्

    भावार्थ - अग्नि-जिसकी जाठराग्नि मन्द नहीं] तीसरे व चौथे मन्त्र का ऋषि है -

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