अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒दय॑स्व । सु॒ते । सचा॑ । शव॑से । शू॒र॒ । राध॑से ॥ वि॒द्म । हि । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । उप॑ । कामा॑न् । स॒सृ॒ज्महे॑ । अथ॑ । न॒: । अ॒वि॒ता । भ॒व॒ ॥५६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥
स्वर रहित पद पाठमादयस्व । सुते । सचा । शवसे । शूर । राधसे ॥ विद्म । हि । त्वा । पुरुऽवसुम् । उप । कामान् । ससृज्महे । अथ । न: । अविता । भव ॥५६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
विषय - 'पुरूवसु प्रभु
पदार्थ -
१. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (सुते) = सोम का सम्पादन होने पर (सचा) = मेल के द्वारा-हमें अपना सान्निध्य प्राप्त कराने के द्वारा (मादयस्व) = आनन्दित कीजिए। इसप्रकार आप हमारे (शवसे) = बल के लिए होइए तथा (राधसे) = सफलता व सिद्धि के लिए होइए। आपके मेल से हम शक्ति-सम्पन्न बनें और सब कार्यों को सिद्ध कर सकें। २. हम (त्वा) = आपको (हि) = निश्चय से (पुरूवसुम्) = अनन्त ऐश्वर्यवाला (विद्य) = जानते हैं। हम (उप) = आपकी उपासना में (कामान्) = अभिलाषाओं को (संसृज्महे) = उत्पन्न करते हैं। आपके समीप ही सब इच्छाओं को प्रकट करते हैं। (अथा) = अब आप (न:) = हमारे (अविता) = सब भागों का दोहन [प्रपूरण] करनेवाले (भव) = होइए। हमारे लिए सब भजनीय धनों को देनेवाले होइए।
भावार्थ - प्रभु का सान्निध्य ही आनन्द, शक्ति, सफलता व ऐश्वर्य' का साधक होता है।
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